Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 66
________________ Gir जैनहितैषी परीक्षा मामका लगमग १२५ श्लोकोंका ग्रन्थ बनाया है। इसमें उक्त मंगलाचरणके श्लोककी विस्तृत व्याख्या की गई है और कपिल, बौद्ध आदि आप्तोंका अनाप्त ठहराकर जिनदेवको वास्तविक आप्त ठहराया है । यह न्यायका ग्रन्थ है। पं० उमरावसिंहजीने अच्छा किया जो इसे हिन्दी जाननेवालोंके लिए भी उपयोगी बना दिया। हम न्यायशास्त्र जानते नहीं हैं, इस लिए इस समालोचनाके अधिकारी नहीं, तो भी इतना कह सकते हैं कि अनुवाद साधारणतया अच्छा हुआ है । यदि मूलग्रन्थकर्ताके आशय और भी सरलतासे समझाये जाते, तो अच्छा होता । अनुवादमें कहीं कहीं भूलें भी रह गई हैं। दूसरे श्लोकके ' शास्त्रादौ मुनिपुङ्गवाः ' का अर्थ ' तत्त्वार्थशास्त्रकी आदिमें उमास्वामिने ' होना चाहिए । चौथे श्लोक, और १२३ वें श्लोकके अर्थमें भी इसी प्रकारकी भूल है । इन श्लोकोंका अर्थ हमने गताङ्कके इतिहासप्रसङ्गमें विस्तारसे किया है। ब्रह्मचर्यदिग्दर्शन-लेखक, जैनमुनि ज्ञानचन्द्रनी । प्रकाशक, लाला फग्गूमल्ल जंगीमल्ल गुरुमहल, अमृतसर । मूल्य सदाचार । अनेक संस्कृत श्लोकों और प्राकृत गाथाओंको देकर लेखक महाशयने पुरानी पद्धतिसे ब्रह्मचर्यकी महिमा गाई है । भाषा अच्छी है । प्रकाशकोंसे मुफ्त मिल सकती है। श्रीतीर्थक्षेत्रकुल्पाक- लेखक, वादी( ? )मानमर्दनकार, भिषग्रन श्वेताम्बरजैनधर्मोपदेशक श्रीमान् बालचन्द्राचार्यजी महाराज ( ? ) । प्रकाशक नेमीचन्द्रजी गोलेच्छा, रेसीडेंसी बाजार, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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