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पुस्तक-परिचय।
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कल्पके ही समान लिखा है और उसमें भी शंकर राजाको स्थापक बतलाया है; परन्तु यह ग्रन्थ तीर्थकल्पसे भी पीछेका अर्थात् वि. संवत् १९०३ का बना हुआ है । यह संभव है कि जो शंकरगण नामका राजा विक्रमकी सातवीं शताब्दिमें हुआ है, वही कुल्पाकतीर्थका स्थापक हो और शायद वह जैन भी हो; परन्तु लेखक महाशय इसके लिए कोई यथेष्ट प्रमाण नहीं दे सके हैं। आपने यह तर्क भी उठाया है कि ' शंकर राजा किस जैन सम्प्रदायका था ?' और स्वयं ही उत्तर दे दिया है कि ' श्वेताम्बर सम्प्रदायका ।' परन्तु इसके लिए भी कोई विश्वस्त प्रमाण नहीं दिया गया है। कुल्पाकतीर्थकी प्रतिमायें शंकरराजाकी बनवाई हैं, इसका जब कोई प्रमाण नहीं है तब वहाँकी प्रतिमाओंके श्वेताम्बर होनेसे राजाको श्वेताम्बरत्व कैसे आ जायगा, यह समझमें नहीं आता। शंकर राजा श्वेताम्बर सिद्ध हो जाय, इसमें हमारी कोई हानि नहीं; परन्तु वह होना चाहिए प्रमाणसे । दक्षिण कर्नाटकमें जितने जैन राजा हुए हैं वे सब दिगम्बर सम्प्रदायके अनुयायी हुए हैं; श्वेताम्बर सम्प्रदायके उस तरफ़ प्रचलित होनेका कोई उदाहरण नहीं मिलता है। ऐसी दशामें शंकरके श्वेताम्बर होनेमें विशेष सन्देह है जिसके समाधान होनेकी बहुत आवश्यकता है। विजलराजाको लेखक महाशयने चालुक्य वंशीय लिखा है; परन्तु वास्तवमें वह कलचुरि या हैहयवंशीय था और चालुक्य 'तेल'के राज्यको छीनकर कल्याणके सिंहासन पर बैठा था । बसवपुराण और चैन्न बसवपुराणके पढ़नेसे निश्चय हो सकता है कि विज्जल श्वेताम्बर था या दि- .
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