Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 77
________________ पुस्तक-परिचय। ७४५ wwwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm~~ इसके तीसरे अंकको पढ़कर तो पाषाणहृदय भी द्रवित हो जाता है । जहाँतक हम जानते हैं, अभी तक हिन्दीमें इसका कोई अनुवाद नहीं हुआ था। पं० सत्यनारायणजीने यह सुन्दर अनुवाद करके बड़ा काम किया । अनुवाद गद्यका गद्यमें और पद्यका पद्यमें किया गया है। पद्यरचना व्रजभाषामें की गई है जिस पर कविरत्न महाशयका पूरा अधिकार जान पड़ता है । हिन्दीके शब्दोंको तोडमरोड़ करके जिस व्रजभाषाका उद्धार आजकलके बहुतसे कवि कर रहे हैं उस ब्रजभाषासे आपकी व्रजभाषा भिन्न है। आपकी रचना शुद्ध बमभाषामें है। रचना बड़ी ही प्यारी और भावपूर्ण है । एक नमूना लीजिए । लक्ष्मणजी रामचन्द्रजीको शोकाकुलित देखकर कहते हैं: तुव नयन सन टपकत टपाटप यह लगी असुअन झरी, बिखरी खरी भुअपै परी जनु दूट मुतियनकी लरी। रोकत यदपि बलसों विरहकी वेदना उर तउ भरै, जब अधर नासापुट कँपहिं अनुमानसों जानी परै॥ - कविजीका गद्यानुवाद उतना अच्छा नहीं है जितना कि पद्यानुवाद है । बहुत कम लोग ऐसा भावपूर्ण पद्यानुवाद कर सकते हैं। पर हमें आशा नहीं कि वर्तमान खड़ी-बोली-पूर्ण हिन्दी संसारमें कविरत्न महाशयके परिश्रमका जितना चाहिए उतना आदर होगा। आजकलके शिक्षितोंके लिए अब व्रजभाषा एक अपरिचित भाषा होगई है-खास तौरसे अध्ययन किये बिना उनके लिए उसका समझना कठिन है। कविरत्न महाशयने व्रजभाषाकी रचनामें जो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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