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जैनहितैषी
. १८२१-२२, १८२४-१८३१ और १८३३ ईसवीमें बम्बई में बने, क्योंकि इनका हिसाब न मिल सका । अब जितने पौंड का सोना-चाँदी आया और उस सोना-चाँदीमेंसे जो सिक्के बनें उस रकमको घटा दिया जाय, तो ७००००००० पौंडका सोना-चाँदी बच रहता है। यही सोना-चाँदी भारतवर्षके दमरे कामोंके लिए-जैसे गहने इत्यादिके लिए बचा । यह कहा जा सकता है कि कुछ सिक्के फिर गला दिये गये होंगे और उनकी धातु बन गई होगी। परन्तु इन सिक्कोंकी संख्या ज़ियादा नहीं हो सकती, क्योंकि सोना-चाँदी सिक्कोंसे सस्ता था । सस्ते होनेका कारण यह है कि सरकार सिक्के बनानेकी सैकड़ा पीछे दो पौंड मजदूरी ले लेती थी। * मिस्टर हेरीसनने भी कहा था कि चूँकि सिक्के बनानेकी मजदूरी सैकड़ा पीछे दो ( पौंड या रुपये) लगती है, इस लिए जो मनुष्य सिक्कोंको किसी और काममें लाना चाहते हैं उनको हानि उठानी पड़ती है । ____“ इसके सिवाय हमको सिक्कोंके घिसनेका भी हिसाब लगाना चाहिए । इंग्लैंडमें शिलिंगके सिक्कोंके घिसनेसे सैकड़ा पीछे २८
___ *श्रीयुत दादाभाई नोरोजी जिस समयका (सन १८०१-१८६९ का ) हाला लिख रहे हैं उस समय भारतवर्ष में कायदा था कि चाहे जो मनुष्य सरकारी टकसाल पर अपना सोना-चांदी ले जाय, सरकार उसके सिक्के बना देती थी
और यदि सो रुपयाकी चाँदीके सिक्के बनते थे तो दो रुपया बनानेकी मजदूरी ले लेती थी। उन दिनों सिक्के खालिस धातुके बनते थे। किसी तरहकी मिलावट न होती थी। यह कायदा जिसको Free coinage कहते हैं भारतवर्ष में सन् १८९३ ईसवी तक रहा।
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