________________
७१२
जैनहितैषी
ततश्चोज्जयिनीनाथश्चंद्रगुप्तो महीपतिः । वियोगाद्यतिनां भद्रबाहुं नत्वाऽभवन्मुनिः॥२३॥ तदा श्रीभद्रबाहुश्च मुनीन्द्रः सुतपोनिधिः। . श्रीमज्जिनेन्द्रचन्द्रोक्तसारतत्त्वविदाम्बरः ॥ २४ ॥ उज्जयिन्यां सुधीभद्रवटवृक्षसमीपके। क्षुत्पिपासादिकं जित्वा संन्यासेन समन्वितः ॥ २५ ॥ स्वामी समाधिना मृत्वा संप्राप्तः स्वर्गमुत्तमम् । सोऽस्माकं सन्मुनिर्दद्यात्सन्मार्ग शर्मकोटिदम् ॥ २६ ॥ जो लोग चरित्रग्रंथोंको अक्षरशः सत्य मानते हैं-उन्हें साक्षात् वीर भगवान्की वाणी समझते हैं और जो ऐतिहासिक पर्यालोचना करनेवाले दूसरे विद्वानोंको इस प्रकारके उत्तर देते हैं:" आपको अमुक चरित्रग्रंथ माननीय है या कि नहीं? यदि नहीं है तो आपसे कुछ कहना ही खपुष्पके ऐसा है ( आकाशके फूल समान है।)" ऐसे लोगोंके लिए नेमिदत्तका उपर्युक्त लिखना बड़ा ही चिन्ताजनक है और उन्हें बहुत ही सोचमें डालेगा।
नेमिदत्तके अस्तित्वका समय विक्रमकी १६ वीं या १७ वीं शताब्दीके लगभग माना जाता है। उनके इस कथनको सत्य माननेसे चंद्रगिरिपर्वत तथा अन्यस्थानोंके बहुतसे प्राचीन शिलालेखोंको और दूसरे विद्वानोंके गवेषपणापूर्ण कथनोंको भी बिना ही कारण, अप्रमाण ठहराना होगा । साथ ही श्रवणबेल्गोलसे, जिसे जैनबद्री भी कहते हैं, उक्त तीर्थको भी उठाना पड़ेगा और जैनसिद्धान्तभास्करके लेख भी गलत हो जायँगे । अतः जैनविद्वानोंके इस विषयमें अपना प्रगट मन्तव्य करना चाहिए।
समाजसेवकजुगलकिशोर मुख्तार।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org