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इतिहास-प्रसंग।
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उससे भी कुछ पीछे ले जाती है। उनके समयमें भट्टारकी प्रवाह बह चुका था। वे स्वयं भट्टारकोंके सम्प्रदायमें थे, या कमसे कम भट्टारकोंकी धनादिक ग्रहण करने और दीनदुःखित जीवोंको, गृहस्थोंकी तरह, भोजनादिक बाँटनेकी प्रवृत्तिको अनुचित नहीं समझते थे । यही कारण है कि उन्होंने, अपने नीतिसारमें, जैनमुनियोंके लिए उसका विधान किया है । यथाः--
" मध्याह्ने दुःखितान्दीनान भोजनादिभिरादरात् । अनुग्रहन्यतिः संघैः पूजनीयो भवेत्सदा ॥४२॥ क्वचित्कालानुसारेण सूरिव्यमुपाहरेत् । संघपुस्तकवृद्धयर्थमयाचितमथाल्पकम् ॥ ८६॥" दूसरे श्लोकमें द्रव्यके · अयाचितम् । और 'अल्पकम् ' विशेषण करनेसे तथा · कचित्कालानुसारेण ' यह पद देनेसे ऐसा भी ध्वनित होता है कि इन्द्रनन्दिके समयमें भट्टारकोंकी धनादिक ग्रहण करनेकी प्रवृत्ति कुछ बढ़ चली थी, उसे कम करनेके लिए ही शायद उन्होंने यह नियम बनाया है । इस ग्रंथमें भट्टारकका लक्षण भी दिया है जिसमें भट्टारकके लिए विद्वान्, उदार और प्रभावशाली होनेके सिवाय दिगम्बर मुनिपनेका कोई भी विशेष चिह्न नहीं रक्खा है।
(२८) वादिराज और कविचंद्रिका* एकीभावस्तोत्र और पार्श्वनाथचरित आदिके कर्ता श्रीवादि__* जैनहितेषी भाग ६ अंक ११-१२ में प्रकाशित 'ग्रन्थविवरणसंग्रह ' शीर्षक लेखमें भी इन वादिराजका और उनकी कविचन्द्रिकाका परिचय दिया जा चुका है।
-सम्पादक।
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