Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 36
________________ ७०४ जैनहितैषी करता है किन्तु प्रथम तो वह अपनी ही हानि करता है । जबतक वह द्वेष रखता है तबतक उसका मन क्रोध और चिन्ताओंसे ग्रसित रहता है । उसका चित्त प्रफुल्लता क्या है, इसको तो कभी जानता ही नहीं है। सबको प्रेम भरी मीठी दृष्टि से देखनेमें कितना आनन्द : भरा है, इसका उसे स्वप्न भी नहीं होता । __पशु तो अपने स्वार्थसाधनके लिए ही कोई अनुचित कार्य करता है और ऐसा करनेसे उसे जो रोकता है उसे हानि पहुँचाता है किन्तु द्वेष रखनेवाला पुरुष तो, स्वार्थ न रहनेपर भी, " मुझे अमुक मनुष्यका नुकसान करना है" इतना विचार आने मात्रसे उसकी हानि करनेको तत्पर हो जाता है और ऐसा करनेमें आनन्द मानता है। यह तो हुई द्वेष रखनेवाले पुरुषकी बात, अब एक पवित्र हृदयवाले व्यक्तिका भी उदाहरण दिया जाता है जिससे द्वेष और उदारताका अन्तर भलीभाँति समझमें आ जावे । __बौद्धधर्मके एक ग्रंथमें लिखा है कि काशीके एक ब्रह्मदत्त नामक राजाने कौशलदेशके राजा और रानीको एक समय बड़ी क्रूरतासे मार डाला और उनका राज्य ले लिया । मरते समय कौशल्य राजा अपने पुत्रको यह उपदेश देता गया कि, “ भाई ! शत्रुताकी ओषधि शत्रुता नहीं है किन्तु प्रेम है।" मातापिताविहीन राजपुत्र बहुत समय तक जंगलोंमें भटकता फिरा । अन्तमें वह ब्रह्मदत्तकी घुड़सारमें नौकर हो गया। एक बार वह घुड़सारमें बैठा बैठा बाँसुरी बजा रहा था । उसे सुनकर राजा बहुत प्रसन्न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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