Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 20
________________ Jain Education International जैनहितैषी - छलिया कपटिन पगली कहते, रुका पवनजयका नहिं मन ( ५९ ) लाख लाख तकलीफ उठाती, तरुणी हा हा खाती थी । नहीं पवनजयके मनको वह, तोभी पिघला पाती थी । ( ६० ) मन था या अनघड़ पत्थर था, लोहा था या वज्जर था । प्रेमभिखारिन परम सुन्दरी, नारीको न जहाँ स्थल था ॥ (६१) बरसों बीत गये ऐसे ही, स्त्रीको दुख पाते पाते । तोभी रुके न पतिके जीमें, दुष्ट भाव आते आते ॥ ( ६२ ) इतनेमें प्रल्हाद भूप पर, पत्र लंकपतिका आया । सैन्यसहित सज रणमें शामिल, होनेको था बुलवाया ॥ (६३) कहा पवमजयने पढ़ उसको, पूज्य पिता मैं जाऊँगा । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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