Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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सुख-दुःख का हेतु नहीं हो सकता। स्वभाव यदि एक रूप है तो वह नित्य है या अनित्य ? यदि नित्य है तो वह भावों/पदार्थों की उत्पत्ति में हेतु नहीं हो सकता, क्योंकि उत्पत्ति में हेतु होने से उसमें परिवर्तन आ जाता है। यदि वह अनित्य है तो एक रूप होकर अनित्य नहीं हो सकता, क्योंकि विविध रूपों वाला होता है, अथवा अनेक होता है।
इस प्रकार विभिन्न तकों से जैनदार्शनिक मल्लवादी क्षमाश्रमण, जिनभद्रगणि (६-७वीं शती), हरिभद्रसूरि, शीलांकाचार्य, अभयदेवसूरि, यशोविजय(१७वीं शती) आदि ने स्वभाववाद का निरसन किया है। जैनदार्शनिकों ने स्वभाववाद के दो स्वरूपों का निरूपण किया है-१. स्वभावहेतुवाद एवं २. निर्हेतुक स्वभाववाद। प्रथम स्वरूप के अनुसार कार्य की उत्पत्ति एवं जगत् की विचित्रता में एकमात्र स्वभाव ही हेतु है। द्वितीय स्वरूप के अनुसार सभी पदार्थ एवं कार्य बिना किसी कारण के उत्पन्न होते हैं, यही उनका स्वभाव है, किन्तु स्वभाववाद का यह दूसरा रूप यदृच्छावाद, कादाचित्कत्व अथवा आकस्मिकवाद के रूप में भी जाना जाता है।
. यद्यपि जैनदार्शनिकों ने स्वभाववाद का निरसन किया है तथापि नयवाद से जैनदर्शन में भी स्वभाव की कारणता स्वीकृत है। उदाहरण के लिए - षड्द्रव्य अपने स्वभाव के अनुसार ही कार्य करते हैं। परिणाम के त्रिविध प्रकारों में विनसा परिणमन में वस्तु का स्वभाव ही कारण बनता है। जीव का अनादि पारिणामिक भाव भव्यत्व, अभव्यत्व, जीवत्व आदि के रूप में स्वभाव से ही कार्य करता है। इसी प्रकार दर्शनावरण आदि अन्य कर्मों का भी अपना-अपना स्वभाव है, जिसके अनुसार वे कार्य करते हैं। जैन दर्शन में इसे कर्म का प्रकृतिबन्ध कहा जाता है। यही कारण है कि जैनदार्शनिक पंचकारण समवाय में स्वभाव को भी स्थान देते हैं। नियतिवाद एवं जैनदर्शन में उसकी कथंचित् कारणता
नियतिवाद के अनुसार नियति ही सब कार्यों का कारण है। नियतिवाद मुख्यत: मंखलिपुत्र गोशालक की मान्यता के रूप में जाना जाता है। किन्तु यह भारतीय मनीषियों की विचारधारा में ओतप्रोत रहा है। आगम, त्रिपिटक, उपनिषद, पुराण, संस्कृत महाकाव्यों एवं नाटकों में भी नियति के महत्त्व को स्पष्ट करने वाले उल्लेख प्राप्त होते हैं। सूत्रकृतांग टीका (१.१.२.३), शास्त्रवार्तासमुच्चय (२.६२ की टीका), उपदेशमहाग्रन्थ (पृ.१४०), लोकतत्त्वनिर्णय (पृ.२५, श्लोक २७) आदि दार्शनिक ग्रन्थों में नियतिवाद का प्रतिपादक निम्नांकित श्लोक प्राप्त होता है
१ धर्मसंग्रहणि, गाथा ५४९-५५२
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