Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 19
________________ प्रथम अंक। दिये हाय! पहुँचाय, घोर भीषण वनमाहीं। । लघुसुत भरतहिं राज्य, दियो को जानत नाहीं॥ जिस प्रकार दशरथने कैकयीके कहनेसे राम जैसे पुत्रको वनमें भेज दिया, उसी प्रकार आजकल भी बहुतसे राजा स्त्रियोंके वचनोंमें लगकर बड़े २ कुकार्य करनेवाले हैं। वे स्त्रियोंके वचनोंको ही प्रायः ब्रह्मवाक्य समझते हैं। 'नटी-हाय ! धिक्कार है, ऐसे राजाओंको, नाथ! क्या प्रजाके लोग भी राजासे इस विषयमें कुछ निवेदन नहीं करते है ? सूत्र-नहीं, प्रिये ! लोग क्या कहें ? वे भी तो राजाका अनुकरण करनेवाले होते हैं । लोकमें भी यह वाक्य प्रसिद्ध है कि, “यथा राजा तथा प्रजा" अर्थात् जैसा राजा होता है, वैसी ही प्रजा होती है। राजाके धर्मात्मा होनेपर प्रजा धर्मात्मा, राजाके पापी होनेपर प्रजा पापिनी, और राजाके सम होनेपर प्रजा सम होती है । सारांश यह है कि, सब राजाका अनुकरण करते है । अतएव किसीकी भी अनुमति न मानकर और प्रवोध शील संतो. पादिकी अवज्ञा करके आत्मा मोहादिको ही राज्य देवेगा। (वदवदाता हुआ विवेक रगभूमिकी ओर आता है।) विवेक-पापी सूत्रधार ! तूही अपनी इच्छासे लोगोंके सम्मुख योहादिका राज्य स्थापित करता है। अरे! तुझे यह नहीं मालूम है कि, हम लोगोंके जीते जी ये मोह कामादि कौन हो सकते है ?" सूत्र--(दूरमे आता हुआ देसकर) प्रिये! देखो, यह समस्त शास्त्रोंका पारगामी विवेक अपनी प्राणप्यारी स्त्रीमतिके कंधेपर करकमल रक्खे हुए और मेरे वचनोंको तृणके समान तुच्छ मानता

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