Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 67
________________ तृतीय अंक। होता है। जो अपनी वरावरीका नहीं है, उसपर क्रोध करनेसे क्या?" अस्तु, कह रे न्याय! तेरे प्रभुने क्या कहकर भेजा है ? ___ न्याय-सुनिये, हमारे महाराजकी आज्ञा है कि "आप मह'जनोंके चित्तोंको, पुण्यरूप पवित्र देशोंको, और तीर्थभूमियोंको छोड़कर चले जायें। यदि नहीं जावेंगे, तो हमारी तीक्ष्ण तलवारकी धारारूप प्रज्वलित अग्निमें तुम्हें पतंगके समान भस्म होना पड़ेगा।" मोह-(क्रोधसे चारों ओर देसता हुआ) इस निःसारकी मूर्ख ताको सुनो! किसीने कहा भी तो है कि, “निस्सार पदार्थोंमें प्रायः बहुत आडंबर दिखाई देता है । सारभूत सुवर्णमें उतनी आवाज नहीं होती, जितनी सारहीन कांसमें रहती है।" रे न्याय ! मैं अयोधरूप चन्द्रमाके तेजको ढंकनेवाला और अपनी किरणोंसे पृथ्वीको व्यास करनेवाला सच्चा पतंग अर्थात् सूर्य हूं, अमिमें जलनेवाला तुच्छ पतंग नहीं। अहंकार--महाराज! सूर्य तो आपके भोंहके विकार मात्रसे आकागमें भ्रमण करता है । फिर आप यह क्या कहते है कि, मै सच्चा पतंग हूं? आप तो पतंग अर्थात् सूर्यसे बहुत बड़े है । और ऐसा भी आप क्यों कहते है कि, "प्रबोधचन्द्रके तेजको ढंकनेशाला पतंग हूं" यह चन्द्रमा तो आपके शृंगाररूप समुद्रकी १-यद्यपि मृगपतिपुरतो रति सरोपं प्रमत्तगोमायुः। तदपि न कुप्यति सिंहस्त्वसदृशपुरुपे कुतः कोपः ॥ २-निःसारस्य पदार्थस्य प्रायेणाडम्बरो महान् । नहि स्वर्णे ध्वनिस्तावद्यावत्कांस्ये प्रजायते ॥

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