Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 104
________________ ९२ ज्ञानसूर्योदय नाटक। पुरुष-(आनन्दसे गद्गद होकर) आओ वेटा! एकवार समीप आओ, तुम्हें हृदयसे लगाकर सुखी होलं.। कुमतिकी प्रतारणामें भूलकर मैने तुम्हारा वहुत कालतक अनादर किया है, सो क्षमा करो। तुम ही मेरे पारमार्थिक सुपुत्र हो । अन्य सब तो उपाधिर रूप और भ्रम उत्पन्न करनेवाले थे । आजका दिवस अत्यन्त ही कल्याणकारी हुआ, जिसमें तुम्हारा दर्शन हुआ । तुम बड़े, डी शुभ अवसरपर आये । आओ, यहां पर बैठो प्रबोध-(समीप ही एक ओर बैठ जाता है) श्रद्धा-(अष्टशतीसे वीरेसे ) प्यारी देवी! देखो, ये पुरुप महाशय तुम्हारे प्राणपति प्रवोधके साथ एकान्तमें विराजमान है । ___ अष्टशती-(समीप जाकर पुरपके चरणोंमें पड़ जाती है) पुरुष-(हाथसे निवारण करता हुआ ) नहीं! नहीं, तुम मेरे चरणोंमें पड़ने योग्य नहीं हो । वल्कि अनुग्रह करनेके कारण तुम ही नमस्कार करनेके योग्य हो । नीतिमें कहा है कि __“अनुग्रहविधिर्यस्मात्स नमस्यो जनः सताम्" ___ अर्थात् जो अपनेपर दया करता है, वह नमस्कार करनेके योग्य होता है । अतएव इस न्यायसे मेरे लिये तुम ही वन्दनीय हो । बेटी! आओ, प्रसन्नतापूर्वक यहा बैठो। और कहो कि, इतने दिन तुमने कहॉ और किस प्रकारसे व्यतीत किये। अष्टशती-(वैठके और लजासे मस्तक झुकाकर ) पूज्यवर! मुझे जड़ मूर्ख लोगोंके साथमें रहकर ये कष्टके देनेवाले दिन व्यतीत करना पड़े है। पुरुष-वे जड़बुद्धि तुम्हारे तत्त्वोंको जानते है कि नहीं?

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