Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 102
________________ ९० ज्ञानसूर्योदय नाटक । मेरा सामान्य प्राम्यजनोंकी स्त्रियोंके समान अनादर किया और कभी एक दिन भी मेरे लिये बुलावा नहीं भेजा। _श्रद्धा-देवी! कुमति स्त्री जिसकी अनादिकालसे प्रतारणा कर रही है, वह पुरुष मला तुझे कैसे बुलाता ? __ अष्टशती-सखी! तुझे मेरी अवस्थाका ज्ञान नहीं है, इसीलिये ऐसा कहती है । श्वसुर चाहे सुखी हो, चाहे दुखी हो..प. रन्तु उसे अपनी पुत्रवधूको बुलाना ही चाहिये। श्रद्धा-निस्सन्देह! यह तो चाहिये ही। अष्टशती-श्रद्धा! किचित् मेरी दुर्दशाका खरूप तो सुनले:जो एक वसन मम कटिपै मलिनस्वरूपा । सो फटा पुराना अतिशय गलित कुरूपा ।। नहिं और चीरको खंड एक हू हा! हा!। जासों ढकि अपनी देह करूं निरवाहा ।। जाने दो और अभूषण सुन्दर प्यारे। । इन पॉयनिमे पायल हू कबहुँ न धारे । यों वहिनी! मेरी विपदाभरी कहानी। __करमॉकी लीला अजगुत कोउ न जानी॥ श्रद्धा-भगवती! निस्सन्देह ऐसा ही होगा। परन्तु यह सब पापी मोहकी चेष्टासे हुआ है । तुम्हारे श्वसुरका इसमे कोई अपराध नहीं है। वे कुमतिके कारण जब तुम्हारे पतिको ही सरण नहीं १ एकं वस्त्रं च कट्यां तदपि हि जरठं शीर्णमत्यन्तमासीत् नैवं चीरस्य खण्डं परमपि विततं येन देहं प्रवेश्यम् । आस्तोसन्या विभूषा कटकयुगमपि प्रोल्लसन्नैव पादे हा धिोकर्म प्रगाढं व्यथयति जनतामेवमत्यन्तदुःखम् ॥

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