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तृतीय अंक। दी। मैंने सोचा यह मूर्खा मुझे पहिचान लेवेगी, इसलिये इसके समीप चलना चाहिये । निकट जाकर उससे भी मैने निवासस्थानकी याचना की। उसने पूछा, तुम्हारा क्या खभाव है, मैंने कहा कि
स्यादभेदात्मकं विश्वं महासत्तानियोगतः। { भेदात्मकं तदेव स्याल्लघुसत्तानियोगतः ।। " अर्थात् " यह जगत् महासत्ताके नियोगसे अर्थात् सामान्य सत्ताकी (अस्तित्वकी) अपेक्षासे अभेदम्प है और लधुमत्ताके नियोगसे अर्थात् विशेष अस्तित्वकी अपेक्षासे भेदरूप है ।" इस प्रकारसे विश्वको कथंचित् एकानेकान्तात्मक श्रद्धान करना मेरा खभाव है । यह सुनते ही उसने कहा, " अरी आत्माकी वैरिणि! विश्वको भेदात्मक कैसे कहती है ? एक अद्वैत ही पारमार्थिक तत्त्व है. न कि द्वैत । क्योंकि वह (द्वैत) अवस्तुरूप है। जैसे कि, सीमें चांदीका प्रतिभास । सीपका यथार्थ ज्ञान हो जानेसे जैसे चांदीका प्रतिभास विलयमान हो जाता है, उसी प्रकारसे अद्वैत बझके ज्ञानसे अवम्तुभूत हैनका प्रतिभास नष्ट हो जाता है । अतएव विश्वको भेदात्मक कैसे कह सकते है ?" तब मैने कहा कि, "सीपमें जिसका प्रतिभास होता है, वह चांदी अनुपलब्ध वस्तु नहीं है ।
और उपलब्ध वस्तु ही प्रतिभासित होती है, सर्वथा अनुपलब्ध 'वस्तु नहीं । यदि अनुपलब्ध वस्तुका भी प्रतिभास माना जावेगा, .., १ जिस सत्वरूप, धर्मके सम्बन्धसे हरएक पदार्थको सत् कहते हैं, उसे महांगना कहते हैं। उस महासत्ताके योगसे सम्पूर्ण पदार्य अभेदरूप हूँ। २ और जिनं विशेष धमाकी अपेक्षासे जीव पुद्गलादि मनुष्य पशु आदि' अन्तर्भेद माने जाते हैं, उसे लघुसत्ता कहते हैं। जैसे जीवत्व पुद्गलवमर्नुप्यत्व, क्षत्रियत्वादि।