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चतुर्थ अंक। पुरुष-अच्छा फिर तुमने क्या किया ?
अष्टशती-तब मैं उसका उल्लंघन करके आगे गई, कि साम्हने ही वौद्धविद्या दिखलाई दी। मैने उससे भी रहनेके लिये स्थानकी प्रार्थना की। सो उसने भी पूछा कि, "तुम्हारा क्या स्वभाव है?" मैने पहलेके समान ही कहा कि, "संसार कथंचित् अनित्य
और कथंचित् नित्य है।" यह सुनते ही उसने कहा, " अरी पापिनी ! संसारको नित्य कैसे कहती है ? देखती नहीं है कि, सम्पूर्ण ही वस्तुएं सत्वरूप ( सत्पना) होनेसे विजली आदिके समान क्षणिकखरूप है । 'यह वही दीपशिखा है, इस प्रकारकी नित्यत्वकी भ्रान्ति सादृश्य परिणामके कारण होती है । अर्थात् दीपककी शिखाय एकके पश्चात् एक इस प्रकार प्रतिक्षणमें होती जाती है, परन्तु पहली शिखाके समान ही दूसरी शिखा रहती है,
और दूसरीके समान तीसरी चौथी, पाचवीं आदि। इसी समानमाके कारण भ्रम होता है कि, यह वही दीपाशिखा है, जो पहले थी। परन्तु यथार्थमें सम्पूर्ण ही पदार्थ क्षणिक हैं । फिर उन्हें नित्य कैसे कह सकते है ?"
पुरुप-अच्छा, तव तुमने इसका क्या उत्तर दिया? अष्टशती-मैने कहा कि;
क्षणिकैकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते । प्रागेव कारकाभावः व प्रमाणं व तत्फलम् ।। अर्थात् "सर्वथा क्षणिक माननेपर भी विक्रिया (पर्याय )नहीं हो सकती है। क्योंकि जिस वस्तुकी उपादानकारणरूप पूर्व पर्यायका प्रथम क्षणमें ही सर्वथा नाश हो चुका, उससे कार्यरूप उ