Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 105
________________ चतुर्थ अंक। अष्टशती-नहीं! वे मेरा खरूप तथा मेरे पदार्थ जाने विना ही निन्दा करने लग जाते है । क्योकि, उन्हें केवल निन्दा करनेहीसे प्रयोजन रहता है, विचार करनेसे नहीं । पुरुष-अच्छा फिर, तुम्हारा उनके साथ किस प्रकारसे परिचय हुआ, और क्या २ वार्तालाप हुआ, सो संक्षेपरूपसे सुनाऑ, तो अच्छा हो। अष्टशती-जो आज्ञा । सुनिये । मार्गमें भ्रमण करते हुए एक बार मुझे सांख्यविद्या मिली । उससे मैने अपने ठहरनेके लिये स्थान मांगा। तब उसने पूछा, तुम्हारा क्या खभाव है ? क्या स्वरूप है ? तब मैने कहा कि, "मैं अनेकान्तस्वभाव हूं।" वह बोली "अनेकान्तस्वभाव किसे कहते है” मैने कहाकथंचित् अर्थात् द्रव्यार्थिक नयसे संसार नित्य है और कथंचित् अर्थात् पर्यायार्थिक नयसे वही संसार अनित्य है । भावार्थ-यह जगत् न तो सर्वथा नित्यरूप है, और न सर्वथा अनित्यरूप है । अतएव मेरा खभाव विश्वको कथंचित् नित्यानित्यखरूप श्रद्धान करनेवाला है । यह सुनकर उसने कहा “ अरी वाचाल! संसार अनित्य कैसे हो सकता है? आगमसे सिद्ध है कि, स्वर्ग ध्रुव है पृथ्वी ध्रुव है, आकाश ध्रुव है, और ये पर्वत ध्रुव है। अर्थात् ये सव पदार्थ नित्य है । और वस्तुके तिरोभाव तथा आविर्भावसे जो अनित्यरूप भ्रांति उत्पन्न होती है, सो सब मिथ्या है। यह बात जब अच्छी तरहसे निर्णीत हो चुकी है, तब तू संसारको अनित्य कैसे कहती है ? मैंने कहा

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