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तृतीय अंक।
१०३ पुरुष-(आल्हादित होता है और चार प्रकारके धर्मध्यानका और शुनयानके पहले दो पायोंका नृत्य कराता है । अर्थात् चिन्तवन करता है)
[ध्यानकी शक्ति दशदिशाओंको उल्लासित करके, वारवार आत्मामे साल्हीन 'हुए अतुल अन्तमलोंको अमिके समान नष्ट करके, दर्शनावरणीय ज्ञानावरणीय अन्तराय सहित मोहको विनाश करके और पुरुपमें प्रबोधका उदय करके अन्तर्धान हो गई।"]
पुरुष-(आचर्यपूर्वक) मोहांधकारका नाश करके यह देखो अमात हो गया है!
प्रबोध-अहो! मोहके अभावसे और भगवतीके प्रसादसे मेरा भी महोदय हुआ । (सभाकी ओर मुंह करके) वाग्देवीने संसाररूपी वृक्षके बीजभूत मोहको सम्पूर्णतया मथन करके ऐसा प्रकाश किया है, जिससे अब समस्त संसार हथेली में रक्खे हुए मोतीके समान यथावत् दिखलाई देता है।
(वाग्देवीका प्रवेश) वाग्देवी-(हर्पसे गेमांचित होती हुई समीप जाकर) मैं चिरकालके पश्चात् आज पुरुषको अरहंतके खरूपमें तथा प्रबोधको शत्रुरहित
और उदयप्राप्त अवस्थामें देखती हूं। । पुरुष-खामिनीके प्रसादसे सर्व प्रकार कल्याण होता है।
वाग्देवी-हे पुत्र! तुम्हें और जो कुछ प्रिय हो, सो बतलाओ, मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूंगी।
पुरुष-क्या भुवनत्रयमें इससे भी कोई अधिक प्रिय है? १ चार धर्मध्यान-आहाविचय, अपायविचय, विपाकविचय, और स स्थानविचय।
२ पहले दो शुक्लध्यान-पृथक्त्ववितर्क और एकत्ववितर्क । तीसरे शु फथ्यानका नाम सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और चौथेका व्युपरतक्रियानिवर्ति है।
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