Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 112
________________ १०२ ज्ञानसूर्योदय नाटक । अष्टशती-अवश्य, ऐसा ही है । पुरुष-तो भेद किस प्रकारसे है ? अष्टशती-अरहंत भगवानमें और आपमें जो भेद है, सो सब पापी मोहका किया हुआ है । जिस समय मोहका सर्वथा नाश हो जावेगा, उस समय आपको उनके साथ सदानन्दसएप एकत्व प्रतिभासित होने लगेगा! अर्थात् आप भी उन्हीं खरू । जावेंगे । जिस प्रकारसे घटके नाश होनेपर घटका आका। आकाशखरूप हो जाता है, उसी प्रकारसे मोहका विनाश होनेपर आप अरहंतखरूप हो जावेंगे। पुरुष-(सानन्द) यदि ऐसा है, तो मैं मोहको अवश्य मारूंगा । हे देवि! मोहके मारनेका कोई उपाय हो, तो बतलाओ । __ अष्टशती-सम्पूर्ण प्रवृत्तियोंका संहार करके यदि आप मा पने आत्मा के द्वारा आत्मामें ही स्थिर होंगे, तो मोहका समूल क्षय हो जावेगा। पुरुष-हे अष्टशती ! मै आप अपने आत्मामें कैसे स्थिर होऊ ? अष्टशती-आत्माके ध्यानसे आत्मामें स्थिर हो सकोगे। [ध्यानका प्रवेश ] ध्यान-मुझे भगवती वाग्देवीने आज्ञा दी है कि, तुम जाकर पुरुषके हृदयमें निवास करो। पुरुष-हे वत्स! आओ, बहुत अच्छे समयमें तुम्हारा आगमन हुआ है। जो स्वयं समीचीन है,वह समीचीन समयमें ही आता है। बेटा! समीप आओ, जिससे मै हृदयसे लगाकर सुखी होऊ । ध्यान-(पुरुषको आलिंगन देता है)

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