Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 103
________________ । चतुर्थ अंक। करते थे, तब तुम्हें तो करते ही कैसे ? परन्तु तुम कुलवती होकर भी अपले पतिके अवलोकन करनेके लिये जिसे कि पुरुषने तिरस्कार करके अलग कर दिया था, एक वार भी नहीं आई! यह मेरी समझमें तो अनुचित हुआ है । पतिव्रता स्त्री वही है, जो दुःखके समय पतिकी सेवा करती है। सुखके समय तो अकेली तुम/ही क्या, सब ही लोग सेवा करनेके लिये आ जाते है । परन्तु अघ इन बातोंसे क्या लाभ ? जो हुआ सो हुआ। इसमें किसीका दोप नहीं है । भवितव्यके योगसे ऐसा ही बन जाता है । चलो, प्रिय संभाषणसे अपने श्वसुरको और पतिको प्रसन्न करो। ___ अष्टशती-सखी! मुझे अधिक लज्जित न करो, अव तुम जो कुछ कहोगी उसे मै अवश्य करूंगी। - [श्रद्धा और अष्टगती एक ओरको छुपकर सड़ी हो जाती है प्रवोध और क्षमा प्रवेश करते है।] प्रवोध-क्षमा! फिर अष्टशती और श्रद्धा तो नहीं आई ? क्या तुम जानती हो कि, अष्टशती कहां है ? और वह श्रद्धाको मिलेगी या नहीं? क्षमा-महाराज! सुना है कि, श्रीमती अष्टशती कुतर्क विद्याओके डरसे श्रीमत्पात्रकेशरीके मुखकमलमें प्रविष्ट हो गई है। प्रबोध-वह कुतर्क विद्याओंसे भयभीत क्यों हो गई? । क्षमा राजन् ! यह तो वे ही आकर सुनावेंगी । मै विशेष नहीं कह सकती हूं। ( अंगुलीसे दिखलाकर) चलिये ये आपके परमाराध्य पिता एकान्तमें विराजमान हैं, उनसे मिल लीजिये। प्रबोध-(ममीप जाकर ) पूज्य जनक! यह आपका सेवक तीनवार अभिवन्दन करता है।

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