________________
चतुर्थ अंक। आत्माकी मनोभिलापा कुमति स्त्रीकी ओर कैसी रहती है, जिसके कहनेसे वह प्रवोध पुत्रको छोड़कर मोहमें ही लीन हो गया था ।
क्षमा-सखि! अब तो खामी (आत्मा) उस कुमतिका मुंह 'भी नहीं देखते है, अभिलापा तो दूर रही।
श्रद्धा~यह बहुत अच्छा हुआ । क्योंकि सम्पूर्ण अनर्थोकी नीलमृता वही एक पापिनी थी। फिर क्यों बहिन! आत्मा अपनी कुमति बीके विना कैसे समय व्यतीत करता है?
क्षमा--अब तो वह सुमति भार्यामें आसक्त चित्त हो गया है। उसीमें तल्लीन रहकर कालक्षेप करता है।
श्रद्धा-अच्छा! अब मालूम हुआ! इसीलिये उन्होंने प्रवोप्रका स्मरण किया है। प्रबोध सुमतिका प्यारा पुत्र है । चलो, अपने २ नियोगकी साधना करै । मै अष्टशतीके लेनेके लिये जाती हूं, और तुम प्रबोध महाराजको बुलानेके लिये जाओ।
[दोनों जाती है । पटाक्षेप ।
तृतीयगर्भाः । स्थान-आत्माके महलका एक एकांत कमरा । पुरुप-अहो, यह प्रसाद श्रीमती अर्हद्वाणीका ही है, जिससे मेरे सम्पूर्ण उपसर्ग नष्ट हो गये, दुःखसमुद्रकी भीषण तरंगोसे मै तिर गया । संसाररूपी वृक्षकी विस्तृत जड़ कट गई और उसकी क्लेशरूप सैकड़ों शाखायें सूख गई।
[अष्टगती और श्रद्धाका प्रवेश ] अष्टशती-सखी! मै चिरकालमें अपने श्वसुरका मुख कैसे देखूगी ? जिन्होंने मुझे आजन्मसे ही अकेली छोड़ दी है ।उन्होंने