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तृतीय अंक। .
पुनि तिहि रावण राक्षसको हू, रामचन्द्र वलवान । पारावार अपार लांधिक, मस्तक काव्यो आन ॥ विधि०॥ किन्तु हाय वे रामचन्द्र हू, रहे न रघुकुलपान ॥ कालकरालव्यालके मुँहमें, भये विलीन निदान ॥विधि०॥ । मन--(आन्हादिन होकर अनुप्रेक्षामे) भगवती! यथार्थमं ऐसा ही है।
' अनुप्रेक्षा-हे मन! यदि तुझे अपनी स्त्रीका स्मरण हो और नवीन गृहिणीके साथ रमण करनेकी इच्छा उत्पन्न होती हो, तो अब धृतिको अंगीकार कर ले। इसके सिवाय अब प्रबोधादिको पुत्र मानकर पाल, और शम दमादिको निरन्तर अपनी संगतिमें रखके आनन्दसे दिन व्यतीत कर ।
मन-(लजामे मस्तक नीचा करके ) आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। , अनुप्रेक्षा-(मनको परमात्माका सेवक वनाती है । मन चरणोमे सिर गकर प्रणाम करता है ) हे वत्स! यदि तुम मेरे बतलाये हुए क्रमके अनुसार वर्ताव करोगे, तो यह निश्चय समझो कि, पुरुष खयमेव जीवन्मुक्त हो जायेगा । इसलिये मेरी दी हुई सुशिक्षा हृदयमें धारण करके तदनुसार वर्ताव करो, जिससे आत्मा पुरुष अपने तेजसे प्रकाशमान होता हुआ आनन्द समुद्रमें मम हो जावे। इति श्रीवादिचन्द्रसूरिविरचिते श्रीज्ञानसूर्योदयनाटके तृतीयोऽङ्कः समाप्तः ।