Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 100
________________ ज्ञानसूर्योदय नाटक । अथ चतुर्थोङ्कः। स्थान-प्रबोध महाराजका बैठकखाना । श्रद्धा-मै महाराजाधिराज श्रीप्रवोधराजकी आज्ञासे हाजिर हुई हूं। प्रबोध हे श्रद्धे! यहाका सव वृतान्त तो तुम्हें विदित ही है।तो भी कहता हूं कि. "चित्तमें प्रशमका प्रवेश होनेपर, कोर काम, और मानके नष्ट होनेपर और मोहकें छुप जानेपर पुरुष अर्थात् आत्मा विवेकका स्मरण करता है ।" इसलिये तुम भगवती वाग्देवीके समीप जाकर जितनी जल्दी हो सके, श्रीमती अष्टश'तीको मेरे पास ले आओ। श्रद्धा-जो आज्ञा । [जाती है । पटाक्षेप - द्वितीयगर्भाः। स्थान-राजमार्गका चौराहा । [भमा और श्रद्धाका मिलाप ।] क्षमा-हे श्रद्धे! आज मेरे चित्तम आनन्दके अकुर फल गये । क्योंकि जितने शत्रु थे, वे सब नष्ट हो गये, और अपने सम्पूर्ण इष्ट वजन मिल गये। श्रद्धा हे वहिन । इतने आनन्दमें आज कहा जा रही हो । क्षमा-आत्माने मुझे आज्ञा दी है कि, प्रवोधको जाकर बुला लाओ, मै उसे देखना चाहता हूं। श्रद्धा-(सहर्ष ) यह भी तो मै खप्न ही देख रहा हूं, कि आत्माने प्रबोधका सरण किया है। अस्तु, यह तो कहो कि, अब

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