Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 71
________________ तृतीय अंक। सुनते हुए वनारसी नगरीकी ओर कूच किया । और कितने ही दिनतक गजराजकी लीलागतिसे गमन किया। __"उस राजाकी गमन करती हुई सेनाकी वाढसे भ्रमण करते हुए पृथ्वीमंडलके तथा दिग्वलय (दिशाओं) के जंगम जीव ही केवल कंपित नहीं हुए, किन्तु अपने आअयमें आकर छुपे हुए शत्रुओकी रक्षा करनेके कलंककी शंकासे मानो सदा स्थिर रहनेवाले पर्वत भी कम्पायमान हो गये। क्योंकि शत्रुओंको शरण देनेवाला भी शत्रु समझा जाता है।" __ "वह राजा अपने शत्रुपर महाकोपकी ज्वालासेजलता हुआ और अपनी सेनाके द्वारा अचलोंके सहित अच'लाको भी चलाता हुआ अर्थात् पर्वतोंसहित पृथ्वीको भी कंपित करता हुआ चला ।" | "घोड़ोंकी दापोंसे उड़ी हुई धूलसे सूर्यमंडल शीघ्र ही लॅक गया! जिससे सौर अर्थात् सूर्य तारागणोंका तेज आच्छादित हो जाता है, उससे शोर अर्थात् योद्धाओंका तज-चल लुप्त हो जाना क्या बड़ी बात है ?" १ न केवलं दिग्वलये चलच्चमूभरभ्रमद्भवलयेऽस्य जगमैः। ज, श्रिताहितत्राणकलशदिनैरिव स्थिरैरप्युदकम्पिभूधरैः ।। (धर्मगाभ्युदयमहाकाव्ये) २ चचाल चालयन्सैन्यैरचलां साचलां नृपः। तस्योपरि महाकोपज्वालाभिोलिताशयः॥ ३ खुरोत्थैर्वाजिनां सूरं रजोमिः पिदधौ जवात् । आच्छाद्यते येन सौर तेजः किं तत्र शूरजम् ॥

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