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तृतीय अंक। नहिं यहां कछ शास्वत सष्टिमें।
___ लखि पर जिय! पर्ययदृष्टि में ॥ मन- हे भगवती! यह शरीर जीवादिकोंके किये हुए उपकारको नहीं जानता है और यह नहीं सोचता है कि मुझे इन्होंने अनेक वस्तुओंके द्वारा लालित पालित किया है, फिर मै इनकी संगति कैसे छोड़ दूं? 'अनुप्रेक्षा-कहा भी तो है;
असन पान सुगंधित वस्तु ले। करत लालन पालन हू भले। छिनकम तन ये छय होत या।।
जल भरयो मृतिकाघट होत ज्यों। मन-भगवती ! इस आत्माका कोई रक्षक भी है ? अनुप्रेक्षा-नहीं, कोई नहीं है;
यदि यहांपर मंत्र सु तंत्रसों। विविधि देवनसों रखपालसों ।। मनुज रक्षित है मरते नहीं।
सकल ही तव तो रहते यहीं। मन-माता! संसारमं आत्माको कोई शरण्यभूत भी है ? अनुप्रेक्षा-नहीं१ अइलालिओ वि देहोण्हाणसुगंधेहि विविहभक्खहि ।
खणमित्तेण य विहडइ जलभरिओ आमघड उव्व।। १ जइ देवो वि य रक्खइ मंतो तंतो य खेत्तपालो य । मियमाणं पि मणुस्सं तो सयला अक्खया होति ।
(खामिकार्तिकेयानु०)