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तृतीय अंक। अनुप्रेक्षा नहीं भाई ! न ऐसा कोई उपाय है, और न होगा, जिससे जीवोंका चवेणा करनेमें प्रवृत्त हुआ यमराज रोका जा सके। काल आनेपर जब अहमिंद्र सरीखे शक्तिशालियोंका भी 'पतन हो जाता है, तब औरोंकी तो बात ही क्या है? जो प्रचंड अग्नि कठोर पाषाणोंसे परिपूर्ण पर्वतको भी भस्म कर डालती है, टरसे घासका समूह कैसे बच सकता है ? 'मन-तो भगवती! अव कृपाकरके मुझे कोई ऐसा तत्त्वोपदेश दीजिये, जिससे मेरा यह शोकका वेग नष्ट हो जावे ।
अनुप्रेक्षा-बेटा! अपने आत्माको एकत्वरूप देखनेसे शोकका आवेग नहीं रहता है। यह चिदानन्द आत्मा निरन्तर अकेला ही है । जैसे कि, सीपके टुकड़े, चांदीका भ्रम हो जाता है, उसी प्रकारसे अन्यान्य कुटुम्बी जनोंमें जो निजत्व बुद्धि होती है, वह केवल विकल्प अथवा भ्रम है। और हे मन! इस अपवित्र शरीरमें प्रमोद क्यों मानता है ? देख कहा है कि,
रुधिर-मांस-रस-मेदा-मज्जा, __ अस्थि-वीर्यमय अशुचि अपार । घृणित शुक्र औ रजसे उपजा,
जड़ स्वरूप यह तन दुखकार ।। इसमें जो कुछ तेज कान्ति है,
समझ उसे चैतन्यविकार । इससे मोद मानना इसमें,
सचमुच लज्जाकारी यार। इसके सिवाय “हे मन! तू अममें क्यों पड़ा हुआ है? ये पांचों इन्द्रियोंके विषयसुख जिनमें कि स्त्रीसुख सबसे सुन्दर है,