Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 96
________________ ८४ ज्ञानसूर्योदय नाटक । इन्द्रजालके समान मनोहर है, अन्तमें विरस है, और केवल अभिमानसे (अपना माननेसे ) सरस है । इनमें मोहका करनेवाला है ही क्या? और स्त्रियां है, सो दर्पणमें दिखते हुए आडन्वर पूर्ण प्रतिविम्वोंके समान केवल मोहकी देनेवाली है ।" और भी कहा है कि, "परिग्रहरूपी पिशाचसे मुक्त हुई जो चित्तकी भ्रमरहित विचारधारा है, वही उत्कृष्ट आत्मीक आनन्दरूप अमृतकी वह्यने वाली है।" __ मन हे भगवती! अच्छा हुआ, जो मुझे अन्तकालमे प्रति बोधित करनेवाले तथा उत्तरके सहनेवाले आपके मुखका दर्शन है गया। [पावापर पड़ता है ___ अनुप्रेक्षा बेटा! सुखी हो, शान्त हो, अब वृथा संताप मर कर और विचार कर कि, "तू कौन है? तेरा पिता कौन है ? तेरे माता कौन है और तेरा पुत्र कौन है ? हाय ! इस सारहीन संसा रमें तो कोई भी किसीका सम्बन्धी अथवा सहायक नहीं है ।। ___ मन हे माता! आपके प्रभावसे मेरी शोकरूपी अमितं बुझ गई । परन्तु अभी शोकके घाव गीले हो रहे है, इसलिर उनको अच्छे करनेकी कोई औषधि बतलाइये। ___ अनुप्रेक्षा-बेटा! मर्मके छेदनेवाले और चित्तको उखाड़ने वाले तात्कालिक शोकोंकी, यही बड़ी भारी औषधि है कि, उनक भूल जावे। __ मन-देवि! सह सत्य है । परन्तु यह दुर्निवार चित्त प्रयर करनेपर भी शोकको नहीं भूलता है-शान्त नहीं होता है। १ कस्त्वं को वाऽत्र ते तातः का माता कस्तनूद्भवः। निस्सारे वत संसारे कोपि कस्यास्ति नो किल ।। -

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