Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 92
________________ ज्ञानसूर्योदय नाटक । पली ही चली गई, तव तुम किस लिये ठहरे हो ? हाय! क्या तुम वज्रमयी हो गये हो ? भला अब और कबतक जीना चाहते हो? चौपाई (१६ मात्रा) यदि तुम रहके भी जाओगे। तो अव रहके क्या पाओगे? ।। क्योंकि बाद भी जाना होगा। ऐसा साथ कहाँ फिर होगा। बस अब इस जीवनसे कुछ प्रयोजन नहीं है। अभी समुद्र में डूवकर शोकानलको शीतल करता हूं! [उठकर जाना चाहता है, इतनेमे अनुप्रेक्षा प्रवेश करती है] अनुप्रेक्षा-मुझे श्रीमती वाग्देवीने वैराग्यकी उत्पत्तिके लिये भेजा है । (समीप जाकर) हे वत्स! इस प्रकार अनालम्बका आलम्बन क्या ग्रहण कर रहे हो? चिरकालतक ठहरनेवाले सव ही पदार्थ पर्यायदृष्टिसे क्षय होते रहते है । तुम्हारे पालन किये हुए पुत्र ही कुछ कालवश नहीं हुए है, जो ऐसा अकृत्य करनेके लिये समुद्रपात करके आत्महत्या करनेके लिये तयार होते हो सुनो, द्रुतविलम्बित । जगतमें उतपन्न जु होत है। नियमसों तिहिको छय होत है। १ स्थित्वापि यदि गन्तारस्ततः किं तिष्ठताधुना। पश्चादपि हि गन्तव्यं क सार्थः पुनरीदृशः॥ २ जं किंचि वि उप्पण्णं तस्स विणासो हवेइणियमेण । पजायसरूवेण य णय किं पिवि सासियं अत्थि ॥ (खाका०)

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