Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 90
________________ ७८ ज्ञानसूर्योदय नाटक । वाले स्वस्ति श्रीवृपभदेवको नमस्कार करके यहा श्रीसम्मेदशिखरसे अष्टशतीसंयुक्ता श्रीमती वाग्देवी, मुनियोंके मुखकमलमें निवास करनेवाली सम्पूर्ण जीवधारियोंके द्वारा वंदनीय, और भूत वर्तमान तथा भविष्यकालके समरत मुनियोंको मोक्ष प्राप्त करनेवाली, आदि विविधगुणगणसम्पन्न श्रीमती अनुप्रेक्षा देवीको प्रणाम करती है, और कुशल क्षेम निवेदन करके एक विज्ञप्ति करती है कि, प्रत्येक दुःखसंतप्त जीव आपका चितवन करते है, और शान्तिलाम करते है। इसलिये आप इस समय अपने खजनसमूहके वियोगकी दुःख ज्वालामें निरन्तर जलनेवाले मनके समीप जावे, और उसे इस प्रकारसे प्रतिबोधित करें, जिसमें वह, संसार भोगोंके भ्रममें फिरसे न पड़ जावे । मेरा यह कृत्य आपहीके द्वारा होने योग्य है । (पत्र पढ़कर तत्काल ही वहांसे जाती है। क्योंकि धर्मकार्यरत बुद्धिवान जन विलम्ब नहीं करते है।) [पटाक्षेप अष्टमगर्भावः। स्थान-एक ऊजड़ घर । [मन विलाप कर रहा है, और सकल्प उसके पास बैठा है ] मन-(आखोंसें आसू बहाता हुआ) हाय! पुत्रो! मैंने तुम्हें बड़े कष्टसे पाला था । तुम मुझे आत्मासे भी अधिक प्यारे थे । र ! तुम दर्शन क्यों नहीं देते है और मेरी रति हिंसा तृष्णादि पुत्रवधुएँ कहां गई? हे राग द्वेष मद दंभ सत्यादि पौत्रो! तुम कहा भाग गये ? तुम्हें मैने बड़ी आशासे पाला था । मुझे बुढापेमें अकेला छोड़कर तुम क्यों चले गये ? अरे तुम एकाएक ऐसे नि

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