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तृतीय अंक। दयी क्यों हो गये ? अथवा तुम सबका ही क्या दोष है ? मै ही पुग्यहीन हूं। फिर मेरे हाथमें रन कैसे रह सकते हैं ? "सौभाग्यके उदयसे दूरके रक्खे हुए रन भी अपने पास आ जाते है, और पापके उदयसे हाथमें आये हुए भी न जाने कहा चले जाते हैं।" हाय ! अब मैं क्या करूं ? कहां जाऊं, किस प्रकारसे जीऊं, और जब भी कैसे ? हाय! यह मेरे लिये कैसा बुरा समय आया है। हाय ! अब तुम्हारे बिना मेरा यह शून्यरूप जन्म कैसे व्यतीत होगा। हाय! यह घटता हुआ प्रवल शोक मर्मच्छेदन करता है, शरीरका घात करता है, दुःख देता है, पीडाको उत्पन्न करता है,
और सम्पूर्ण प्रवृत्तियोंको शून्य कर देता है। (मूर्छिन होकर गिरता है) । संकल्प-(घवणकर मनके मुहपर हाथ फेरता हुआ) हे खामिन् ! सावधान इजिये! सावधान हूजिये!!
मन-(किंचित् सावधान हो आंखें खोलकर ) मेरी धर्मपत्नीप्रवृत्ति कहां गई? हाय! यहां तो वह भी नहीं दिखती है।
संकल्प-हे देव ! उनका तो मोहादिका विनाश सुनते ही हृदय विदीर्ण होकर देहोत्सर्ग हो गया था।
मन- दीर्घ श्वास लेकर ) हाय! क्या मेरे सम्पूर्ण पापोंका एक ही बार उदय हो गया? मित्र संकल्प! चलो, दोनों एक साथ मिलकर झंपापात करें। जिससे उस प्राणप्यारीसे शीघ्र ही मिलाप हो जावे । अव ये दुःख नहीं सहे जाते । हे प्राण! जव प्यारी धर्म
१ दूरस्थं सुलभं रतं पुंसां भाग्ये पचेलिमे । हस्तागतं विपुण्यानामपि दुरं व्रजेत्पुनः ॥