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तृतीय अंक। मैत्री-देवी! सो भी अपनी पुत्री और पुत्रवधुओंके वियोगसे तप्त होकर मृत्युकी वाट देख रहा है । . वाग्देवी-वह मरना चाहता है, इससे क्या ? जब कहीं वह दुःखसे मरेगा, तव ही हमारा मनोरथरूपी कल्पवृक्ष फलेगा। __ मैत्री-जव इतना आक्रोश कर रहा है, तब निश्चय समझिये कि वह बहुत जल्दी मृतकसदृश हो जावेगा । और फिर जिसकी गमनागमन शक्ति नष्ट हो गई है, वह तो मराहीसा है।
वाग्देवी-यदि ऐसा है, तो बहुत अच्छा है। मनके मृतप्राय होनेपर आत्मा भी अपने खरूपको प्राप्त हो जावेगा । इसलिये अब उसे वैराग्य उत्पन्न करानेका प्रयत्न करना चाहिये । लो, यह पत्र ले जाओ, और अनुप्रेक्षाको जाकर दो। वह दुःखोंको दूर करने के लिये यथावत् मार्गकी स्थितिका उपाय बतलावेगी। मैत्री-जो आज्ञा।
[मैत्री जाती है । पटाक्षेप
सप्तमगर्भावः।
स्थान-अनुप्रेक्षाका महल । धर्मकरी दासी--(अनुप्रेक्षासे) हे स्वामिनि ! द्वारपर सर्व जीवो को हित करनेवाली मैत्री पत्र लिये हुए खयं आकर खड़ी है।
अनुप्रेक्षा-(सय द्वारपर आकर हँसती हुई मैत्रीकी ओर देखती है) मैत्री-(विनयपूर्वक नमस्कार करके पत्र देती है)
अनुप्रेक्षा-(पत्रको आदरपूर्वक खोलकर मस्तकसे लगाती है और फिर पढ़ती है ) "वृषद अर्थात् धर्मके देनेवाले और वृषभके चिन्ह