Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 82
________________ ७० ज्ञानसूर्योदय नाटक । ___ नरेन्दछन्द। तौलों दुःख शोक भय भारी, रोग महामारी है। अदया अकृत दरिद्र दीनता, अरु अकाल जारी है। तौलों ही विप शत्रु भूत ग्रह, डांकनि शांकनि डेरा। जौलों विमलवुद्धिवारे नर, जमैं नाम नहिं मेरा ॥ बस, यह सुनते ही और शान्तिको एक वार देखते ही हिसा " हो गई। वाग्देवी-अच्छा हुआ! वहुत अच्छा हुआ! न्याय-यह देख अनर्थका मूल कोप, क्षमा और शाति दोनोंको मारनेके लिये दौड़ा । तब क्षमा वोली, "हे कोप! तू मेरा जन्मका भाई है। यदि तू मुझे मारना चाहता है, तो ले मार डाल । परन्तु यथार्थमें तू हिंसक नहीं है। मेरे किये हुए अशुभ कर्म ही हिंसक है । किसीने कहा है कि छापय । होवै यदि कोइ कुपित, सरलतासों हँस देवे। अरुन वरन लखि नयन, दृष्टि नीची कर लेवै ॥ झपटै लकुटी लेकर तो, यों कहै होय नत । मार लीजिये सेवक है यह, खेद करो मत । अरु मारन ही यदि लगै तो, पूर्वकर्म मम गये खिर । यों कहै शांतचितसों तहां, कोप उदय किम होय फिर ॥ - १ क्रुद्ध स्मेरमुखं तथारुणमुखेऽधोभूमिसंलोकनं जाते दण्डनियोगिनि स्वयमहो हन्यः सदा सेवकः। अज्ञानादथवा हते मम पुराकर्मक्षयः संगतः एवं वाक्यविशेषजल्पनपरे कोपस्य कुत्रोद्मः॥

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