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ज्ञानसूर्योदय नाटक । 'छीनैं छितिपाल छलवलसों छिनेकमाहिं,
पावक जलाय जाय आसमान चूमें हैं। - पानी निज पेटमाहिं धरै हरें जक्ष आय,
चाहै कई हाथ नीचे धरो होय भूमें हैं। वार वार ऐसे धनको धिकार दीजे यार,
जापै गैर और ऐसे वैरीवृन्द झूमें हैं । तब तृष्णाने आगे आकर कहा, "अजी! लाखोंका धन हो, तो भी मैं उसे थोडा गिनती हैं और व्याजके वलसे शीघ्र ही करोडों कर डालती हूं और जब करोडोंका हो जाता है, तब वाट देखती हूं कि, यह कब अजोंका होता है।" यह कहकर तृष्णाने आशाका महावाण चलाया, जिससे विवेक मूच्छित होकर गिर पड़ा। और उस समय उसे मरा हुआ समझकर मोहके कटकमें विजय-दुंदुभी वजने लगा।
वाग्देवी--फिर क्या हुआ शीघ्र कहो! मैत्री हे देवी! उस दुदुभी नादको सुनकर प्रवोध राजा भी दुःखसे व्याकुल होकर मूछित हो गये । और इस घटनासे चारों ओर घोर कोलाहल मच गया। तब श्रीमती जिनभक्तिने आकर अपने हाथरूपी अमृतके सिंचनसे प्रवोध और विवेक दोनोंको सचेत किया। सावधान होते ही विवेक फिर युद्धके लिये तयार हो गया। यह देख राग और द्वेष दोनो सम्मुख आकर वोले,-"महा
१ इसके पहले युद्धका समाचार न्याय सुना रहा था, परन्तु यहासे मैत्री सुनाने लगी है। ऐसा प्रसग क्यों आया और न्याय कहा चला गया, यह ठीक २ समझमें नहीं आया।