Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 86
________________ ७४ ज्ञानसूर्योदय नाटक । राग मलाई। धिक धिक लोभ महा दुखदाय ॥ टेक ॥ सकल अवनितलमाहिं भ्रमत नर, लछमीम ललचाय । पारावार अपार भयानक, तिरत न नेकु डराय ॥१॥ वंक भौहवारे भूपनकी, करत खुशामद जाय । प्राण-प्रीति तजि पर्वत लंघत, पावत ताहु न हाय! ॥२ कहाँ जाउँ पाऊं धन कैसे, रहत सदा यह भाय । किसकी सेवा कीजे 'प्रेमी', कौन विचक्षण राय ॥३॥ संतोषके चुप होनेपर क्रोध बोला, "तीन लोकमें जो २ वस् सारभूत हैं, वे सब मेरी ही है । ऐसा विचार कर मै प्रतिदिन सन्नतापूर्वक उचित प्रयत्न किया करता हूं।" लोभका उक्त व नष्ट करनेके लिये सतोषने इस प्रकारसे वीतराग-वाण चलाये: मवैया (३१ मात्रा) लक्ष्मी-आगमका सुख अव तक, नष्ट हुआ नहिं कितनी वार । १ इस पदमें नीचेके दोटोकोकी छाया मात्र ली गई है। २ संभ्रान्तं धनलिप्सया क्षितितलं भूधाः पुनर्लद्धिताः। भ्रूभगाङ्करदारुणा नृपजनाः के के न यत्तीकृताः। हेलोल्लासितभाभीपणतटस्तीर्णश्च रत्नाकरः। धिग्लोभं जनदुःखदं नहि पुनःप्राप्तस्ततो मा-लवः ॥ ३ व गच्छामि कुतो लभ्यं धनं कं संश्रये नृपम् । कस्य सेवा प्रकर्तव्या कोऽस्ति दानी विचक्षणः ॥ ४ रमारम्भानन्दाः कति कति न तेऽद्यापि गलिताः। पुनस्तान् विभ्रान्तश्चरसि विफलं किं चपलधीः॥ ततो यत्सौख्याधि गणयसि चिरं तन्न भविता। ततो भूयोभूयः किमिति कुरुये क्लेशमतुलम् ॥ - -

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