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तृतीय अंक। मै मोहको भी जीत सकती हूं, फिर यह क्रोध तो उसका अनुचर है।" यह कहकर क्षमा क्रोधके सम्मुख निर्भय होकर चली । उसे देखकर क्रोध ललकार कर वोला, अरी क्षमा! तू मेरे साम्हनेसे । हट जा । मैंने कितने बार तेरा घात किया है, कुछ स्मरण है? आज प्रबोधकी सहायतासे तू क्या वैक्रियक शरीर धारण करके आई है? एक वार मेरे वैभवको तो सुन
मुजगप्रयात। किती वार जीते नहीं मैं नरेश ।
किती वार प्रेरे न मैंने सुरेश ॥ किती वार त्यागी तपाये नहीं में।
किती वार लोप्यो न धर्मे यहीं मैं ।। इस प्रकार कहकर क्रोध क्षमाको मारनेके लिये झपटा । उसके यसे ज्यों ही क्षमा पलायन करना चाहती थी, त्यों ही शान्तिने भाकर धैर्य देकर कहा, "माता! यह डरनेका समय नहीं है, तुम किसी भी प्रकारका भय मत करो" और फिर हिंसाके सम्मुख होकर कहा, "हिंसा! आज इन तेजखी पुरुषोके देखते हुए इस समरभृमिमें मेरे साम्हने आ, और अपना धनुपवाण धारण करके उस प्रचंड बलको प्रगट कर, जिसे धारण करके तू मेरी बड़ी वहिन दयाको मारनेके लिये आई थी । क्या तू नहीं जानती है, कि
१ कति न कति न वारानिर्जिता नो मनुष्याः
कति न कति न वारान् सूदिता नैव शक्राः। कति न कति न वारान् तापसा नैव तप्ताः कति न कति न वारान नैप धर्मो विलुप्तः ॥