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तृतीय अंक।
५७ मोह-अन्तु नाम | अधिक कहने से क्या? न्याय! तुम अयने खामीसे जाकर कहो कि, "हम श्रीमत्पार्श्वनाथ जिनेन्द्रकी पवित्र जन्मनगरी वाराणसीको जो कि हमें अपने कर्मके उदयसे 'प्राप्त हुई है, किसी प्रकारसे नहीं देवेंगे । आपके पक्षमें भले ही अरहंतादिक आ जावें । हम युद्ध करनेके लिये नहीं डरते है । समरभूमिमें तलवारोंके कठिन प्रहारोंसे हम अपने उज्वल रा. ज्यको न्यायपूर्वक अवश्य ही लेवेंगे।"
न्याय-वस, समझ लिया, आपका यह कथन आपकी मृत्युको समीप बुला रहा है।
[जाता है। पटाक्षेप]
चतुर्थगर्भावः। स्थानराजा प्रबोधकी सभा ।
न्यायका प्रवेश प्रबोध-प्रिय न्याय! कहो, मोहसे तुम्हारा क्या २ संभाषण हुआ?
न्याय-महाराज ! संभाषण सुननेसे लाभ नहीं है, संग्रामका भारंभ कीजिये । जबतक आप राज्यचिन्ह प्रगट न करेंगे, तबएक राजा नहीं होंगे।
प्रबोध-वे राज्यचिन्ह कौन २ हैं? न्याय-निष्टोकी रक्षा, दुष्टोंका निग्रह और आश्रितजनोंका भरणपोषण ये ही राज्यचिन्ह है । १- सदवनमसदनुशासनमाथितभरणं च राजचिह्नानि ।