Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 68
________________ ५६ ज्ञानसूर्योदय नाटक । एक बूंद मात्र है । और उसी बूंदके कणखरूप ये तारागण आकाशरूपी आंगनमें विखरे हुए प्रकाशित हो रहे है । अतएव आप चन्द्रमासे कोटि गुणें बड़े है । फिर चन्द्रमाके तेजको दूर करनेमें आपके सामर्थ्यकी क्या प्रशंसा हुई ? और खामी! इस) दूतका भी कुछ दोष नहीं है । क्योंकि मनुष्य विपत्ति कालके समीप आनेपर इसी प्रकार यद्वा तद्वा बोल बैठता है । जब सीतापुर, विपत्ति आनेवाली थी, तब उसने यद्यपि कभी सोनेका मृग नहीं देखा सुना था, तथापि रामचन्द्रसे उसके लानकी प्रार्थना की थी। __ क्रोध-(मोहकी प्रेरणासे अत्यन्त कुपित होकर ) अरे! इस पापीको मारो, विलम्ब क्यों कर रहे हो? न्याय-अरे उद्धतो! उद्धतताके वचन बोलनेसे क्या लाभ, है ? स्वस्थ होकर क्यों नहीं बैठ रहते ? क्या मोहके समीप सब ही ऐसे उद्धत है, विचारशील कोई भी नहीं है ? सुनो, जिस प्रबोध राजाके पक्षमें अर्हन्मुखकमलनिवासिनी श्रीमती वाग्देवी हुई हैं, उसकी विजय अनायास ही होगी, इसमें सन्देह नहीं है। __ सम्पूर्णसभासद (हॅसते हुए) ये एक स्त्रीके भरोसे युद्धमें जय लाभ करेंगे! क्या खूब! वचनहीसे तो इनके विजयकी गति जान पड़ती है। १ प्रत्यासन्नापदो जीवा यद्वा तद्वा वदन्ति च । सीताश्रुतं मृगं हैम रामः प्रार्थयते न किम् ॥ सुवर्णमृगके मागनेका दृष्टान्त अन्यमतकी अपेक्षासे है। इसी आशयका एक श्लोक हितोपदेशमें भी है, असंभवं हेममृगस्य जन्म तथापि रामो लल्लभे मृगाय । प्रायः समापनविपत्तिकाले धियोऽपि पुंसां मलिनीभवन्ति ॥

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