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तृतीय अंक। न्याय-भगवती! नमस्कार।
वाग्देवी-भाई ! प्रसन्न रहो । अच्छा कहो, वहांका क्या समाचार है ? . न्याय-भला, आपके प्रतिकूल रहनेवालोंकी कभी जय हो सकती है?
वाग्देवी-अस्तु, जो कुछ हो, विस्तारपूर्वक निवेदन करो ।
न्याय हे पुन्यवती देवी! अत्यन्त प्रवल सेनाके सुभटोंके उत्कट कोलाहलसे जहां गंगानदीमें नकचक्रादि जलजंतु उछलते है, और उनके चीत्कार शब्दोंसे दशों दिशा वहरी हो जाती है तथा हाथी घोड़े रथ पयादोंके चरण संचालनसे उठी हुई धूलिके समूहमें जहां गंगानदीके पुलकी श्रान्ति होती है, मोहने ऐसी रणभूमिमें पहले अपना अहंकार नामक योद्धा भेजा । सो वह विकट तांडव करती हुई भौहोंका धनुष धारण करके प्रबोध महाराजके भेजे हुए विनयस बोला, कि, "मनुप्यके चित्तमें मैं जिस समय प्रवेश करता हूं, उस समय गुरुजनोके प्रति नम्रताके-चतुरताके वचन कहना-उठना-नमस्कार करना और अपना आसन बैठनेके लिये देना, ये तेरे उत्पन्न किये हुए भाव छूमंतर हो जाते है ।" उसकी ऐसी गर्जना सुनकर विनयने कहा, "रे पापी! तू जिसके चित्तमें प्रवेश करता है, उसका मैने कभी कल्याण होते हुए नहीं देखा। 'पुराणमें प्रसिद्ध है कि, तेरी संगतिसे ही कौरव नाशको प्राप्त हुए
थे।" ऐसा कहकर उसने तत्काल ही अपने तीक्ष्ण विनयभावरूपी वाणसे अहंकारको पृथ्वीपर सुला दिया ।
वाग्देवी-अच्छा हुआ, बहुत अच्छा हुआ। अस्तु फिर? .