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ज्ञानसूर्योदय नाटक । होनहार होगी, वह निश्चयपूर्वक होगी । उसका उल्लंघन कौन कर सकता है? अस्तु अब मै यहां अपने भाईबन्धुओंका मरण देखने के लिये नहीं ठहरूंगी। मुझसे इनका मरण नहीं देखा जावेगा।
[जाती है । परदा पढ़ता है पष्टगर्भावः। स्थान-श्रीसम्मेदशिखरका एक जिनालय । [एक हाथमें वीणा और एक हाथमें पुन्नक लिये हुए वाग्देवी विराजमान ___ है। मंत्री उदासीन मुद्रा धारण क्येि हुए प्रवेश करती है।]
वाग्देवी-सखी मैत्री! आओ! कहो, कुछ अनिष्ट तो नहीं हुआ? इस समय तुम्हारी मुद्रा खेदखिन्न जान पड़ती है।
मैत्री नहीं! मै तो खेदखिन्न नहीं है। आपकी कृपासे सर्वत्र सब लोग कुशल है । हां! आप अवश्य ही कुछ विमनस्क जान पइती है, जिससे मेरा हृदय आश्चर्ययुक्त हो रहा है। __ वाग्देवी-सखि ! न जाने सुर असुरोंको भयके उत्पन्न करनेवाले इस महायुद्धमें प्यारे वेटे प्रबोधकी उस शक्तिशाली मोहरूप भैसेके साथ क्या दशा हुई? इसी विचारसे मेरा मन खेदखिन्न होरहा है। ___ मैत्री माता! इसके लिये आप क्यों चिन्ता करती है ? मुझे तो पूर्ण विश्वास है कि, जिसका आपने पक्ष ग्रहण किया है, उ. सका निश्चयपूर्वक कल्याण होगा।
वाग्देवी-यद्यपि पुन्यवान पुरुषोंका युद्धमें क्षय नहीं है ना है । तो भी जिसका हृदयमें पक्ष होता है, उसकी चिंता चित्तको विकल कर डालती है। विशेष करके इस समयतक कोई समाचारबाहक नहीं आया है, इससे और भी चिन्ता बढ़ती जाती है।
, न्यायका प्रवेश]