Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 65
________________ ५३ तृतीय अंक। प्रत्रोध न्याय! हम तुम्हें दूतकार्यमें अत्यन्त चतुर समझते हैं, इसलिये तुम मोहसे जाकर कहो कि, तू महात्माओंके हृदयका निवास छोड़कर, और वाराणसीपुरी तजकर म्लेच्छ देशोंमें य'थेच्छ निवास कर । और अपने हृदयसे "मै राजा हूं। इस प्रकारका आग्रह निकाल दे। अन्यथा शीघ्र ही युद्ध के लिये अपने सैन्यसहित सुसज्जित हो जा। वहांसे महाराज प्रबोधको शीघ्र ही आये हुए समझ। न्याय-खामिन्। तिनकेके समान बेचारे मोहपर इतनी कोपानिकी क्या आवश्यकता है ? जो मेरे ही कोपको सहन करनेका पात्र नहीं है, वह आपके क्रोधको कैसे सह सकता है ? भला, जिस सर्पको नकुल (न्योला) ही हतनं कर डालता है, वह क्या गरुड़के लिये दुर्जय हो सकता है। मुझे आज्ञा दीजिये, मैं अकेला ही सबको पराजित कर आऊं? अवोध-अच्छा! तुममें ऐसा कितना बल है? / न्याय-महाराज! मेरे वलकी आप क्या पूछते हैं। तीनों लोककी प्रजा मेरे जीवनसे ही जीती है। मेरे अदृश्य होनेपर सबका समूल क्षय हो जावेगा । अतएव यह सब प्रजा मेरे आधीन विचरण करती है। तब आप ही कहिये, मेरे इस बलके सम्मुख मोह किस खेतकी मूली है ? तथापि मै खामीकी आज्ञाका पालन करके लिये जाता हूं। [जाता है । पटाक्षेप तृतीयगर्भावः। स्थान राजा मोहका दरवार । अधर्मद्वारपाल महाराज! द्वारपर प्रबोधका कोई दूत आ. कर खड़ा है। लिये जा मुली है ? तथापनाहिये, मेरे इस व

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