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तृतीय अंक। प्रत्रोध न्याय! हम तुम्हें दूतकार्यमें अत्यन्त चतुर समझते हैं, इसलिये तुम मोहसे जाकर कहो कि, तू महात्माओंके हृदयका निवास छोड़कर, और वाराणसीपुरी तजकर म्लेच्छ देशोंमें य'थेच्छ निवास कर । और अपने हृदयसे "मै राजा हूं। इस प्रकारका आग्रह निकाल दे। अन्यथा शीघ्र ही युद्ध के लिये अपने सैन्यसहित सुसज्जित हो जा। वहांसे महाराज प्रबोधको शीघ्र ही आये हुए समझ।
न्याय-खामिन्। तिनकेके समान बेचारे मोहपर इतनी कोपानिकी क्या आवश्यकता है ? जो मेरे ही कोपको सहन करनेका पात्र नहीं है, वह आपके क्रोधको कैसे सह सकता है ? भला, जिस सर्पको नकुल (न्योला) ही हतनं कर डालता है, वह क्या गरुड़के लिये दुर्जय हो सकता है। मुझे आज्ञा दीजिये, मैं अकेला ही सबको पराजित कर आऊं?
अवोध-अच्छा! तुममें ऐसा कितना बल है? / न्याय-महाराज! मेरे वलकी आप क्या पूछते हैं। तीनों लोककी प्रजा मेरे जीवनसे ही जीती है। मेरे अदृश्य होनेपर सबका समूल क्षय हो जावेगा । अतएव यह सब प्रजा मेरे आधीन विचरण करती है। तब आप ही कहिये, मेरे इस बलके सम्मुख मोह किस खेतकी मूली है ? तथापि मै खामीकी आज्ञाका पालन करके लिये जाता हूं।
[जाता है । पटाक्षेप तृतीयगर्भावः।
स्थान राजा मोहका दरवार । अधर्मद्वारपाल महाराज! द्वारपर प्रबोधका कोई दूत आ. कर खड़ा है।
लिये जा मुली है ? तथापनाहिये, मेरे इस व