Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 22
________________ ज्ञानसूर्योदय नाटक। देखो उदाहरण भ्रान्ति नहीं रहै ज्यों। वाहूवली-भरत भ्रात लड़े कहो क्यों? ॥ इसके सिवाय आत्मा कुमतिमें इतना आसक्त और रत हो रहा है कि, अपने हितको भूलकर वह मोहादि पुत्रोंको इप्ट समझ रहा है । जो कि पुत्राभास है, और नरकगतिमें ले जानेवाले हैं। __ मति-आर्यपुत्र! क्या पुत्र भी पिताको दुःख देते है ? विवेक-हा! अत्यन्त दुःख देते है । वे बेचारे इसका सममें भी विचार नहीं करते है कि पिताको दुःख देनेसे पाप होता है। कुलांगार-हठी कंसने मथुरा नगरीको सेनासे घेरकर अपनी माता और पिता उग्रसेनको कैद करके अतिशय दुख दिया था, यह कौन नहीं जानता है ? (नेपथ्यमें काम कहता है-) काम-अरे पापी विवेक! क्यों हम लोग तो सब खामीको दुःख देनेवाले है, और तुम सुख देनेवाले हो! वाह ! अपना तो मुँह ट अरे दुष्टमति ! तू यह नहीं जानता है कि, मेरे रहते ही मनुप्योंको सुख हो सकता है, अन्यथा नहीं । जो लोग हमसे उत्पन्न हुए सुखोंको छोड़कर-सुखकी लालसासे अन्यत्र भटकते है, वे जलसे भरे हुए सरोवरको छोड़कर मृगतृष्णाके वश मरुस्थलोंमें भटकते फिरते है। विवेक-प्रिये! यह काम मोहके बलको पाकर बलवान र वन रहा है। किन्तु जबसे श्रीनेमिनाथ भगवानने ताड़ना की है, तबसे बेचारा यत्र तत्र भ्रमण ही किया करता है । मैं तो इसका मुंह देखना भी अमगलीक समझता हूं। इसलिये अब यहां ठहरना ठीक नहीं है। [दोनों जाते है]

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