Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 40
________________ ज्ञानसूर्योदय नाटक। मान सकते है? जोसमवायकारण (उपादानकारण) पूर्वमें किसी धर्मयुक्त रहता है, वही अपरकार्यका आरंभक होता है । किन्तु जो समवायिकारण सर्वथा नष्ट हो जाता है, वह दूसरे कार्यका आरंभक नहीं हो सकता है। जैसे मिट्टीका पिंड सर्वथा नष्ट होकर. घट उत्पन्न करनेका समवायिकारण नहीं हो सकता है। किन्तु पिंड पर्यायको छोड़कर घट पर्याय धारण करता है, और मृतिकापना दोनों अवस्थाओंमें मौजूद रहता है । इसके सिवाय जो सर्वथा क्षणिक होता है, वह एक ही क्षणमें दो कार्योंका कर्ता नहीं हो सकता है । क्योंकि स्थिति और उत्पत्ति दो कार्य दो क्षणों में होते हैं। क्षमा-नहीं! क्षणिक मतानुयायी बौद्ध ऐसा नहीं कहते हैं। वे उत्पत्ति और विनाशको युगपत्-एक ही क्षणमें मानते हैं । शान्ति-यदि ऐसा है, तो उनके कार्यकारणभाव ही घटित नहीं होगा। क्योंकि पदार्थके पूर्वकालमें रहनेवाले धर्मको (पर्यायको) कारण कहते हैं, और उत्तर (आगामी) कालमें रहनेवाले धर्मको कार्य कहते हैं । इससे हे माता! यह क्षणिक मत जिसमें मिथ्या क्षणिक कल्पना की गई है, और इस लिये जो यथेच्छाचारी है, योग्यताका स्थान नहीं है। परन्तु माता! मुझे यह जाननेकी आकांक्षा है कि, यह मत कब और कैसे चला? क्षमा-सुन शास्त्रकारोंने कहा है किसिरि पासणाहतित्थे सरऊतीरे पलासणयरत्यो। पिहितासवस्स सिस्सो महासुदो वुढिकीत्तिमुणी।। तिमिपूरणासणेया अह गयपवजावओ परमभट्टो। रत्तंवरं धरित्ता पवट्टियं तेण एयंतं ॥

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