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द्वितीय अंक। नन्त सुखादि गुणोंका नाश कहकर नैयायिक अपनी हँसी कराता है। क्योंकि ज्ञानादिकका अभाव होनेसे तो आत्माका भी अभाव हो जावेगा । काठसे उत्पन्न होनेवाली ज्वालाका अभाव हो सकता है. परन्तु अनिमें तादात्म्य भावसे रहनेवाली जो उष्णता है, उसका अभाव होना असंभव है । जिस समय उष्णताका अभाव होगा, उस समय अग्निका स्वयं नाश हो जावेगा । क्योंकि अग्नि उष्णतास्वरूप ही है। यही दृष्टान्त आत्माके ज्ञानादि गुणोंके विपयम भी समझ लेना चाहिये । आत्मा ज्ञानखरूप है, इसलिये ज्ञानके अभावमें आत्माका अस्तित्व कभी नहीं रह सकता । परन्तु उसके अदृष्टजन्य जो सुखदुःखादि विकार हैं, उनका अष्टके अभाव होनपर अभाव हो सकता है। . क्षमा-परन्तु नैयायिकका मत है कि, ज्ञानादि (वुझ्यादि) 'गुण आत्माके खरूप नहीं है, किन्तु घटके समान अत्यन्त पृथक् है। इसलिये जैसे घटके नाश होनेपर पटका नाश नहीं हो सकता है, उसी प्रकारसे बुद्धयादिके अभावसे आत्माका अभाव नहीं हो सकता है।
शान्ति-इससे सिद्ध हुआ कि, दोनोंमें भेद मानते हैं । अच्छा तो लोकमें यह कहनेका व्यवहार कैसे चल रहा है कि, "बुद्धि, आदि आत्माके गुण हैं।"
क्षमा--समवाय सम्बन्धसे । अर्थात् गुण और गुणीमें यद्यपि सर्वथा भेद है, परन्तु सम्बन्ध विशेपसे ऐसा कहनेका व्यवहार है।
शान्ति--जब गुण और गुणीमें सर्वथा भेद है, तब उनमें १ गुणोंका नाग होनेपर गुणीका सद्भाव नहीं रह सकता है । आत्मा गुणी है और नौ उसके गुण है । जब ये गुण ही नही रहेंगे, तो फिर गुणी आत्मा कैसे रहेगा, उसका भी अभाव हो जावेगा।
Hamiraram