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द्वितीय अंक। श्वेताम्बरयति-(श्राविकाको उपदेश देता है ) हे उपासिके ! देख श्रीगौतमस्वामीके प्रश्न करनेपर भगवान् महावीर खामीने उपदेश दिया है कि,
सयणासण वच्छं वा पत्तं वाणी य वा विहिणा। एणं दई तुहो गोयम! भोई णरो होदि ॥ 'देश्य ण णियं सत्तं वारइ हारयेदिण्णमण्णेण । एएण वि कम्मेण य भोगेहि विवजिओ होई ॥
अर्थात् "जो दाता संतुष्ट चित्तसे यतियोको शयन, आसन, वस्त्र, पात्र, और शास्त्रका विधिपूर्वक दान करता है, हे गौतम ! वह अनेक भोगोंका भोगनेवाला होता है । और जो आप तो खयं देता नहीं है, और दूसरे देनेवालेको रोकता है, अथवा दिया हुआ छीन लेता है, सो इस पापकर्मसे भोगवर्जित होता है।" और आवश्यकगाथामें भी कहा है कि,
चत्तिसदोसविसुद्ध कियकम्मं जो पउज्जऐ गुरूणं । सो पावइ णिचाणं अचिरेण विमाणवासं च ॥
अर्थात् "जो बत्तीस दोपरहित कृतकर्म (युक्ताचारी) गुरुकी पूजा वन्दना करता है, सो शीघ्र ही मोक्षको प्राप्त होता है, अथवा विमानवासी देव होता है।"
यति इस प्रकार प्रातकाल व्याख्यान करके चला जाता है, और दोपहरको भिमाके लिये भ्रमण करता हुआ एक दूसरे गृहस्थकं द्वारपर पहुंचता है]
यति-( गृहस्थकी चोमे) धर्मलाभ हो। श्राविका-(उठकर ) महाराज! अन्न तो नहीं है।
यति-तो जो कुछ प्रामुक वस्तु हो, वही मुनिको देना चाहिये । अन्नहीका अन्वेषण क्या करती है ?