Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 61
________________ तृतीय अंक। शान्ति-(खगत ) जान पड़ता है, यह भयसे कांपती हुई मेरी बड़ी बहिन दया आ रही है । इस लिये चलं, और सम्मुख जाकर उसे नमस्कार करूं । चलती है, क्षमा भी उसके साथ जाती है] क्षमा-बेटी दये! ऐसी शून्यहृदय कैसे हो गई, जो अपनी माताको और बहिनको भी नहीं पहिचान सकती है? दया-(देखकर और उच्छ्वास खींचकर ) हाय! यह तो मेरी प्राणवल्लभा माता है। माता! यह तेरी बेटी कराल हिंसाकी विकट दाढ़से बचके आई है, और तुझे तथा बहिनको देख रही है । सो दोनों मुझे एकबार हृदयसे तो लगा लो। [तीनों परस्पर आलिंगन करती है] क्षमा-(गोदमें विठाकर ) दये! वतला तो सही कि, उस राक्षसी हिंसाके कराल दांतोंके बीचमें पड़कर तू कैसे बची ? शान्ति-हां बहिन ! जल्दी सुनाओ। उसके अन्यायसे मेरा हृदय दुःखी हो रहा है। क्षमा-यह भी कहो कि, उस सर्व जनोंकी अप्रिया तथा नरककी लीलाने आकर क्या किया ? दया-मुझे मारनेकी इच्छासे वह पापिनी हिंसा कराल नेत्र किये हुए मेरे मनोहर कोमल शरीरपर उछलके पड़ी। और जैसे जंगलमें हरिणीको व्याघ्री पकड़ती है, उसी प्रकारसे मुझे अपने सखे करोंतके समान दांतोंमें दृढ़तासे दबाकर ले चली। क्षमा-हाय! हाय! धिक्कार है उसे !! ( मूर्छित होकर पड़ती है) शान्ति-(मुंहपर हाथ फेरती हुई) माता! सचेत होओ! सचेत १जव दयाने दोनोंको नहीं पहिचाना, तव क्षमाने इस प्रकार कहा।

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