Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 58
________________ ज्ञानसूर्योदय नाटक । __ शान्ति-नहीं, मेरा हेतु व्यभिचारी कभी नहीं है । क्षु गोवरसे विच्छुओंके शरीरकी उत्पत्ति होती हैं, न कि उ चैतन्यरूप आत्माकी । __ क्षमा-बेटी! बहुत ठीक कहती है । यथार्थमें ऐसा ही है। ये खपरात्मशत्रु तेरे तत्त्वोंको नहीं समझ सकते है। इनके यहां दयाका कोई प्रयोजन नहीं है । यह मत केवल इस लोकसम्बन्धी मुख भोगनेके लिये वना है। चलो, दयाकी कहीं अन्यत्र खोज करें। [एक ओरको जाती है। [नाचते गाते बजाते हुए वहुनमे वैष्णवोंका प्रवेश ] शान्ति-माता! ये कौन है, जो दोनों हाथोंसे मंजीरा और मृदंगोकी मधुर ध्वनि कर रहे है, अपने मनोरम कंठसे वीणाकी मधुरताको जीत रहे है, सारे शरीरमें तिलक लगाये हुए है. और कठमें तुलसीके मणियोंकी माला पहने हुए हैं ? क्षमा-बेटी! ये वैष्णवजन है। प्रतिदिन घर घर जाकर जागरण करते है, और विष्णुका भजन किया करते है। शान्ति–इनका आचार कैसा है? क्षमा-तोतेके समान जप तो राम रामका किया करते है, परन्तु वैसा मनोज्ञ आचरण नहीं करते है । मुखसे राम राम गान करते है, और नेत्रोंसे मनोहर रामाका (लीका) पवित्र दर्शन, करते हैं । परन्तु देवकी ओर नजर भी नहीं उठाते हैं । इनका रात्रिजागरण प्राय सुरतलीलाके लिये ही होता है, देवमा लिये नहीं। किसीने कहा भी तो है,

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