Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 50
________________ ज्ञानसूर्योदय नाटक । थंचित् भेदरूप और कथंचित् अभेदरूप मानना ही ठीक है, जिसमें दोनों ही पक्षके दोषोंको अवकाश नहीं मिलता है । अर्थात् ऐसा माननेसे सर्वथा भिन्न माननेमें जो दोष उपस्थित होते है, वे नहीं आयेंगे, और सर्वथा अभिन्न माननेमें जो दोष आते है,उनकी । भी संभावना नहीं होगी। तो हे माता! अव यहासे भी चलो। यह मत भी सारभूत नहीं है। जिसमें दया-दान-पूजन-पठन तीर्थयात्रादि व्यवहारोंको सर्वथा जलांजलि दे डाली है, भला . समें अपना मनोरथ कैसे सिद्ध हो सकता है ? [दोनों आगे चलती है) शान्ति-(किसीको आते देख भयभीत होकर) हे माता! राक्षम है । राक्षस!! क्षमा-नहीं बेटी! भय मत कर, दिवसमें राक्षस नहीं मिलते। शान्ति–तो यह जो साम्हनेसे आ रहा है, कौन है ? क्या दुर्भिक्ष है ? क्षमा-नही! नहीं! दुर्भिक्ष नहीं है। शान्ति--तो क्या मूर्तिमान दंभ है ? क्षमा-नही दम भी नहीं है, किन्तु दुर्भिक्ष और दंभसे उत्पन्न होनेवाला, श्वेताम्बर संघ है। जो पाच जैनाभास है, उनमें एक यह भी है। [महादुर्भिक्षमे दुःखी, जिव्हालपटी, जिनकल्पी मार्गको छोड़कर भिखभगों डरसे हाथमें दड, भिक्षाके लिये पात्र और दयाका ढोंग दिखलानेके लिये दड आसन परिग्रह लिये हुए तथा छिदे कानोंसे मुखपट्टी वाधे हुए श्वेताम्बर यति आता है, और श्रावकके द्वारपर आकर खड़ा होता है ] १ श्वेताम्बर, काष्ठासंघ, द्रावड़ीय, निपिच्छ और यापनीय ये पाच जैनाभास इन्द्रनंदिकृत दर्शनसारमें कहे हैं।

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