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जानसूर्योदय नाटक । किसी प्रकारका सम्बन्ध कहना ही मूर्खता है । क्योंकि जो सर्वथा भिन्न है, उनमें जब एकत्व ही सिद्ध नहीं होता है, तो फिर समवायसम्बन्ध कैसे हो सकता है ? क्योंकि शास्त्रमें समवायसम्बन्धका लक्षण इस प्रकार कहा है कि, "अपृथक्सिद्धयोर्गुणगुणिनोः। सम्बन्धः समवायः" अर्थात् जो पृथक् सिद्ध नहीं है। ऐसे गुणों
और गुणियोंके सम्बन्धको समवाय कहते है । जैसे तन्तु और, वस्त्र । वस्त्रसे उसके तन्तु भिन्न नहीं है । तन्तुरूप ही वस्त्र है । अतएव तन्तु और वस्त्र दोनोंका समवायसम्बन्ध है । जैनाचार्य समवायको भिन्न पदार्थ अंगीकार नहीं करते हैं। किन्तु कुमारिल आचार्यके मतके समान गुण और गुणीमें तादात्म्य अर्थात् एक वस्तुत्व मानते है। पदार्थसे न्यारे, नित्य, एक तथा पृथक समवायका शास्त्रमें खूब निराकरण किया है । अतएव मेरी समझमें इस नैयायिकसे तो वेदान्त ही अच्छा है। उसमें आनन्दाविर्भूत आत्माका खरूप तो कहा है।
क्षमा हे माता ! सच्चे निर्दोष अनुमानोंको भी अपने सिद्धा न्तके अनुकूल और दूसरोंके सिद्धान्तोंसे अमान्य दोषोंसे दूषित अर्थात् झूठे बनाकर हिंसाके प्रतिष्ठित करनेवाले नैयायिकोंमें दया कहांसे आवेगी अतएव इससे भी पराङ्मुख होना चाहिये ।
दोनों आगे चलती हैं, १ इस पदका यह अभिप्राय है कि, नैयायिक लोग दूसरोंके अनुमान जि. प्रमाणादिकोंसे दूपित वतलाते हैं, उन प्रमाणोंके लक्षण ही यथार्थमें झूठे किरे गये हैं। उन्हें केवल वे ही अभीष्ट मानते हैं, दूसरे मतवाले नहीं मानते । इस लिये जब उनके माने हुए लक्षण ही दूषित कल्पित और आभासरूप है, तब उनसे जिन सच्चे अनुमानोंका खडन किया जाता है, वे कभी दूषित अमान्द और असिद्ध नहीं हो सकते हैं।
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