Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 46
________________ ज्ञानसूर्योदय नाटक । कहकर जो निषेध करते है कि, "यजसम्बन्धी हिंसा अधर्मकी साधिका है । क्योकि यज्ञबाह्य हिंसाके समान उसमें भी जीवोका हनन होता है ।" सो उपाधि है। __ शान्ति-माता! यह क्या वकता है कि, “जगतका कर्ता शिव है।" भला, अनादिसंसिद्ध जगतकी उत्पत्ति कैसे संभव हो सकती है क्योंकि इसमें अतिप्रसग (अतिव्याप्ति) दोष उपस्तिक होता है । प्रवल होनेपर भी सर्वज्ञ गधेके सीगोका उत्पादक नहीं हो सकता । क्यो कि " जिस प्रकार सर्वथा मत् वस्तुकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है, उसी प्रकार सर्वथा असत्की भी नहीं हो सकती है, ऐसा नियम है । जो वस्तुएं कथचित् सत्रूप तथा कथचित् अस रूप है, उन्हीमें उत्पत्ति अनुत्पत्ति संभव हो सकती है । सर्वथा सत् अथवा असत् वस्तुओंमें नहीं । और दूसरा यह क्या पढ़ता है कि "आत्माके नव गुणोंके अभावको मोक्ष कहते है" ऐसा माननेसे तो आत्मखरूपकी ही हानि हो जाती है । क्षमा-बेटी! इस मतका यह सिद्धान्त है कि, ज्ञानादिक गुण अदृष्टजन्य हैं। इसलिये अदृष्टादिके अभावसे तज्जन्य ज्ञान सुखादिका भी अभाव होता है। क्योंकि कारणके अभावसे कार्यका अभाव प्रसिद्ध है । अदृष्ट कारण है और ज्ञानादिक कार्य है। शान्ति-मा! अदृष्टजनित ज्ञानमुखादि गुणोका ही नाश हो सकता है, न कि अनादिभूत आत्माका, जो कि किसी नयकी अपेक्षा तादात्म्य सम्बन्धसे निरन्तर सम्बन्धित है, किसी कर्मके कारण आच्छादित है, और इसी प्रकारसे कर्मावरण नष्ट होनेपर शुद्ध वरूपसे प्रगट होनेकी जिसमें शक्ति है । उस आत्माके अ

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