Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 38
________________ ज्ञानसूर्योदय नाटक। : कर्ण जैसे बलवान कन्याके गर्भ आये, विलखे वन पांडुपुत्र जूआके विधानसों। ऐसी ऐसी बातें अविलोक जहां तहां वेटी!' विधिकी विचित्रता विचार देख ज्ञानसों । खबर उड़ रही है कि, मोहने दयाका घात करनेके लिये हिंसाको भेजा है। इससे मेरा चित्त चिन्तासे व्यथित हो रहा है। शांति-माता, यदि तुम्हारे चित्तमें ऐसा संदेह है, तो चलो, दयाका शोध करें कि, वह कहां है? यदि किसी दर्शनमें (मतमें) उसका पता लग जावे, तो अच्छा हो। [दोनों चलती हैं। [मार्गमें एक चौराहेपर खड़ी होकर] शान्ति-(विस्मित होकर) मा! यह इन्द्रजालिया सा कौन आ रहा है। क्षमा नहीं, बेटी! यह इन्द्रजालिया नहीं है। शान्ति-तो क्या मोह है? ' क्षमा-(वारीकीसे देखकर ) हां! अब मालूम हुआ । बेटी! यह मोह नहीं है, किन्तु मोहके द्वारा प्रचलित होनेवाला बुद्धधर्म है । शान्ति-तो माता! इसीमें देखो, कदाचित् मेरी प्यारी व हिन मिल जावे। क्षमा-अरी वावली! मेरे उदरसे जिसका जन्म हुआ और तेरी जो बहिन है, उसकी क्या बुद्धागममें मिलनेकी शंका करना ठीक है? शान्ति-कदाचित् किसी प्रयोजनके वश आ गई हो, तो एक मुहूर्त मात्र खड़े होकर देखनेमें क्या हानि है ?

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