Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 42
________________ ज्ञानसूर्योदय नाटक। , [दोनों थोड़ी दूर चलती है, कि साम्हनेसे यानिक सिद्धान्त प्रवेश करता है] शान्ति-माता! यह लान किये हुए कौन आया ? क्या बगुला है? क्षमा-नहीं प्यारी ! यह 'राम राम जपनेवाला है। शान्ति–तो क्या तोता है ? क्षमा-नहीं, मनुष्याकार है। सारे शरीरमें तिलक छापे लगाये है । हाथमें दर्भके (दूवाके) अंकुर लिये है । और कंठमें डोरा ( यज्ञोपवीत ) डाले हुए है। शान्ति–तो क्या दंभ है ? क्षमा-नही, दंभ नहीं है, किन्तु उसके आश्रयसे संसारके ठगनेवाला याज्ञिक ब्राह्मण है। शान्ति-माता! यहां एक घडीभर ठहर जा, तो दयाको इसके पास भी देख लें । कदाचित् शीघ्रतासे यहां आ रही हो । दोनों एक ओर जाकर सड़ी हो जाती है । याज्ञिक-(यज्ञभक्तोंको उपदेश देता है) मनु महाराजने कहा है कि, यज्ञार्थ पशवः सृष्टा स्वयमेव स्वयंभुवा । यज्ञो हि भूत्यै सर्वेषां तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः॥ औषध्यः पशवो वृक्षास्तिर्यञ्चः पक्षिणो नराः। 'यज्ञार्थ निधनं नीताः प्राप्नुवन्त्युच्छ्रितां गतिं ।। अर्थात् विधाताने पशुओंको स्वयं ही यज्ञके लिये बनाया है । और यज्ञ सम्पूर्ण जीवोंके लिये विभूतिका करनेवाला है । अतएव १ मनुस्मृतिके पाचवें अध्यायका ३९ वॉ ४० वॉ श्लोक ।

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